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१ परिशिष्ट महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक में प्रयुक्त विशिष्ट शब्द आराधना
अतिचार (दोष) न लगाते हुए निर्दोष साधना का प्रतिसेवन/प्रतिपालन करना आराधना है। आराधना के तीन भेद हैं-(१) ज्ञान आराधना, (२) दर्शन आराधना और (३) चारित्र आराधना ।
दिगम्बर साहित्य के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यरज्ञान सम्यग्चारित्र व सम्यग्तप-इन चारों का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, उनमें परिणति करना, उनको दृढ़तापूर्वक धारण करना, उनके मन्द पड़ जाने पर पुनः पुनः जागृत करना और उनका आजीवन पालन करना आराधना है। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में ज्ञान, दर्शन और चारित्र के साथ तप को भी आराधना की
श्रेणी में सम्मिलित किया गया है। आलोचना- प्रतिक्षण उदित हान वाले कषायों के कारण साधक की
आस्था एवं चरित्र में ज्ञात एवं अज्ञात-दोनों प्रकार के दोष आते हैं, जीवन-शोधन के लिए उनको दूर करना अत्यावश्यक है । इसके लिए आलोचना सबसे उत्तम मार्ग है । आचार्य, गुरु या वरिष्ठजनों के समक्ष निष्कपट भाव से अपने छोटे एवं बड़े सभी दोषों को प्रकट कर देना
आलोचना है। आहार
आगमों में मनुष्यों के चार प्रकार के आहार का उल्लेख मिलता है -(१) अशन, (२) पान, (३) खाद्य और (४) स्वाद्य ।
१. (क) स्थानांग ३/४/४३४, (ख) श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग १,
पृष्ठ ६२-६३ । २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० २८४ । ३. वही, भाग १, पृ० २९० । ४. स्थानांग, ४/४/५१२ ।
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