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लेश्या -
जिसके द्वारा जीव पुण्य-पाप से अपने को लिप्त करता है, उसको लेश्या कहते हैं । लेश्या छह प्रकार की हैं'(१) कृष्ण लेश्या (२) नील लेश्या (३) कापोत लेश्या (४) तेजोलेश्या (५) पद्म लेश्या और (६) शुक्ल लेश्या ।
शुभ और अशुभ के भेद से लेश्या दो प्रकार की कही गई हैं। तेजो, पद्म और शुक्ल ये तीनों लेश्या शुभ लेश्या हैं तथा कृष्ण, नील और कापोत- ये तीनों लेश्या अशुभ लेश्या हैं । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से व्याप्त सम्पूर्ण द्रव्यों के आधार रूप चौदहराजूपरिमाण आकाश खण्ड को लोक कहते हैं । सम्पूर्ण लोक के तीन भेद हैं - ( १ ) ऊर्ध्वलोक (२) अधोलोक और (३) तिर्यक् लोक । एक अन्य भेद से लोक चार प्रकार का है - (१) द्रव्यलोक (२) क्षेत्रलोक (३) काललोक और (४) भावलोक । वालाग्रकोटि - बाल के अग्रभाग के करोड़ों खण्ड करने पर जो उसका एक खण्ड होता है, उसे वालाग्र कोटि कहते हैं । दूसरे शब्दों में वालाग्रकोटि अत्यन्त सूक्ष्म प्रदेश का सूचक है । विषय ज्ञेय को कहते हैं । श्वेताम्बर साहित्यानुसार शब्द के तीन, रूप के पाँच, गन्ध के दो, रस के पाँच और स्पर्श के आठ भेद । इस प्रकार पाँच इन्द्रियों के कुल तेईस विषय हैं। किन्तु दिगम्बर साहित्य के अनुसार
लोक
विषय -
महापापइण्णयं
अरबाक (अक्खाग), हूण, रोसक ( रूसवासी या रोमको, मरूक, रूत, (भ्रमररूत) और विलास (चिलात ) देशवासी आदि ।
१. (क) स्थानांग ३/१/५८, (ख) समवायांग ६ / ३१, (ग) उत्तराध्ययन ३४/३, - (घ) प्रज्ञापना १७ / २, २८/४, (ङ) श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग २, पृष्ठ ७०-७७, (च) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृष्ठ ४३६ ॥
२. (क) श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग १, पृष्ठ ४५-४६, (ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृष्ठ ४५६ ।
३. व्याख्याप्रज्ञप्ति ११/१०/२ ।
४. श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग ६, पृष्ठ १७५ ।
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