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परिशिष्ट पांच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श और सात स्वर-ये सत्ताईस भेद पाँचों इन्दियों के विषयों के और एक भेद मन का अनेक विकल्प रूप विषय है।' इस प्रकार दिगम्बर परम्परानुसार विषय कुल अट्ठाईस हैं। जिससे पीड़ा होती हो, उसे शल्य कहते हैं । शल्य के तीन भेद कहे गये हैं।-(१) माया शल्य (२) निदान शल्य
और (३) मिथ्यादर्शन शल्य । संयोग सम्बन्ध-संयोग सम्बन्ध दो प्रकार का कहा गया है
(१) देशप्रत्यासत्तिकृत संयोग सम्बन्ध और
(२) गुणप्रत्यासत्तिकृत संयोग सम्बन्ध संस्तारक- संस्तारक का सामान्य अर्थ बिस्तर, शय्या अथवा बिछौना
है, किन्तु विशेष अर्थ में संस्तारक उस शय्या को कहा जाता है जिसे समाधिमरण के अवसर पर साधक ग्रहण करता है। संस्तारक चार प्रकार के कहे गये हैं -
(१) पृथ्वी (२) शिला (३) फलक और (४) तृण । समिति- संयम की साधक प्रवृत्ति या यतनापूर्वक की जाने वाली
प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। समितियाँ पाँच हैं(१) ईर्या (गमन) समिति (२) भाषा समिति (३) एषणा (याचना) समिति (४) आदान-भण्ड-पात्र निक्षेपण समिति और (५) उच्चारप्रस्रवण-खेल-सिंघाण-जल्ल प्रतिस्थापनिका समिति ।
उत्तराध्ययनसूत्र में अन्तिम दोनों समिति के नामों में शाब्दिक भिन्नता है। वहाँ चौथी समिति आदान
२. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृष्ठ ५७८ । २. (क) स्थानांग ३/३/३८५, (ख) समवायांग ३/१५,
(ग) श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग १, पृष्ठ ७३,
(घ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृष्ठ २६ । ३. वही, भाग ४, पृष्ठ १४२ । ४. वही, भाग ४, पृष्ठ १५४ ।। ५. (को स्थानांग ५/३/४५७, (ख) समवायांग ५/२६, (ग) श्री जैन सिद्धान्त
बोल संग्रह, भाग १, पृष्ठ ३३०-३३१ ।
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