Book Title: Agam 26 Prakirnak 03 Maha Pratyakhyan Sutra
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 102
________________ ध्यान प्रत्याख्यान भय परिशिष्ट मनुष्य योनि । इस प्रकर कुल चौरासी लाख योनि हैं । ' दिगम्बर परम्परानुसार नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक - इन छहों स्थानों में प्रत्येक में सात-सात लाख योनि, प्रत्येक वनस्पति में दस लाख योनि, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरेन्द्रिय-प्रत्येक में दो-दो लाख योनि, देव, नारकी और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय - प्रत्येक में चार-चार लाख योनि तथा मनुष्यों में चौदह लाख योनियाँ होती है । इस प्रकार कुल चौरासी लाख योनि हैं। चित्तवृत्तियों का किसी एक विषय पर काल विशेष तक केन्द्रित रहना ध्यान है । ध्यान चार प्रकार का है (१) आर्त ध्यान, (२) रौद्र ध्यान, (३) धर्म ध्यान और (४) शुक्ल ध्यान । १. श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र, पृ० ६६ । २. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), गाथा ८९ । प्रशस्त और अप्रशस्त इस भेद से ध्यान दो प्रकार का है। धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान- ये दोनों ध्यान प्रशस्त ध्यान हैं तथा आतं ध्यान और रौद्र ध्यान - ये दोनों ध्यान अप्रशस्त ध्यान हैं । यावज्जीवन या सीमित समय के लिए भविष्य में किसी क्रिया को न करने की प्रतिज्ञा करना ही प्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यान कई प्रकार का है । स्थानांगसूत्र में निम्न पाँच प्रकार के प्रत्याख्यानों का उल्लेख उपलब्ध होता है* -- (१) श्रद्धानशुद्ध- प्रत्याख्यान, (२) विनयशुद्ध-प्रत्याख्यान, (३) अनुभाषणा शुद्ध - प्रत्याख्यान, (४) अनुपालनाशुद्ध- प्रत्याख्यान, (५) भावशुद्ध- प्रत्याख्यान । सामान्यतया भावी अहित की आशंका को भय कहते हैं । सैद्धान्तिक दृष्टि से मोहनीय कर्म की प्रकृति विशेष के ३. (क) स्थानांग ४/१/६०, Jain Education International बोल संग्रह, भाग १, पृ० १९३-१९४, २, पृ० ४९४ । ४. स्थानांग ५/३/२२१ । २७ (ख) समवायांग ४ / २०, (ग) श्री जैन सिद्धान्त (घ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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