Book Title: Agam 26 Prakirnak 03 Maha Pratyakhyan Sutra
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

Previous | Next

Page 100
________________ परिशिष्ट ३५ इन्द्रियग्राम- पांचों इन्द्रियों सम्बन्धी वासनाओं को इन्द्रियग्राम कहा जाता है। उपधि- परिग्रहीत या संचित वस्तु उपधि है। सामान्यतया परिग्रह को उपधि कहा जाता है। उपधि तीन प्रकार की हैं'-(१) कर्म उपधि, (२) शरीर उपधि और (३) वस्त्र-पात्र आदि बाह्य उपधि । दिगम्बर परम्परानुसार उपधि दो प्रकार की कही गई हैं-(१) बाह्य उपधि, यथा-पीछी, कमण्डलु आदि और (२) आभ्यन्तर, उपधि, यथा-क्रोध, मान, माया, लोभादि। कर्म- मिथ्यात्व कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म है। कर्म के आठ भेद हैं(१) ज्ञानावरणीय कर्म, (२) दर्शनावरणीय कर्म, (३) वेदनीय कर्म, (४) मोहनीय कर्म, (५) आयु कर्म, (६) नाम कर्म, (७) गोत्र कर्म और (८) अन्तराय कर्म । कषाय- जो शुद्ध स्वरूप वालो आत्मा को कलुषित करते हैं अर्थात् कर्ममल से मलीन करते हैं, वे कषाय हैं । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जिससे जीव पुनः पूनः जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है, वह कषाय है।४ कषाय मुख्य रूप से चार हैं'-(१) क्रोध कषाय, (२) मान कषाय, (३) माया कषाय और (४) लोभ कषाय । गर्हा पंचपरमेष्ठी के समक्ष आत्मसाक्षीपूर्वक जो रागादि भावों का त्याग है, वह गर्दा है। भूतकाल में किये गये पापों की निन्दा करना भी गर्दा है। वस्तुतः गर्दा प्रायश्चित १. स्थानांग, ३/१/९४ । २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ४५५ । ३. (क) स्थानांग, २/४/४२४, (ख) प्रज्ञापना २३/१, (ग) श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग ३, पृ० ४४-४५ । ४. देखिए-अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड ३, पृ० ३९५ । ५. (क) स्थानांग, ४/१/७५, (ख) समवायांग ४/२०, (ग) प्रज्ञापना, २८/७, (घ) श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग १, पृ० २६९, (ङ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० ३३, (च) व्याख्याप्रज्ञाप्ति, १/३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115