Book Title: Agam 26 Prakirnak 03 Maha Pratyakhyan Sutra
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 84
________________ महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक संवरण करके मान-अपमान से भयभीत हुआ ( मैं ) पाँच महाव्रतों की रक्षा करता हूँ। (७१) कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या तथा आर्त और रौद्र ध्यान को त्यागते हए ( मैं ) संयती पाँच महाव्रतों की रक्षा करता हूँ। (७२) तेजो लेश्या, पद्म लेश्या एवं शक्ल लेश्या तथा धर्म-ध्यान और शक्ल ध्यान को प्राप्त ( मैं ) संयती पांच महाव्रतों की रक्षा करता हूँ। (७३) मन से सत्य जानने वाला, वचन से सत्य बोलने वाला और शरीर से सत्य आचरण करने वाला-इस प्रकार विविध रूप से सत्यविद् ( मैं ) पाँच महाव्रतों की रक्षा करता हूँ। (७४) चारों कषायों का निरोध करके, सात प्रकार के भयों से मुक्त तथा आठों मद स्थानों का त्यागी ( मैं ) पाँच महाव्रतों की रक्षा करता हूँ। (७५) गुप्ति (त्रिगुप्ति ), समिति (पंच समिति ), भावना (द्वादश भावना ) एवं ज्ञान तथा दर्शन से उपसम्पन्न (में) संयती पाँच महाव्रतों की रक्षा करता हूँ। (७६) त्रिदंड से रहित, त्रिकरण से शुद्ध, त्रिशल्य से निःशल्य-इस प्रकार विविध रूप से अप्रमत्त ( मैं ) पाँच महाव्रतों की रक्षा करता हैं। (गुप्ति समिति प्रधान प्ररूपणा) (७७) त्रिविध रूप से शल्य का निराकरण करके ( मैं ) आसक्ति के परिणाम को जानता हूँ। गुप्तियाँ और समितियाँ ही मेरे लिए शरण और त्राण है। (तप माहात्म्य ) (७८-७९) जिसप्रकार कार्य कुशल और बुद्धि सम्पन्न निर्यामक ( जहाज चालक) चक्रवाल से क्षोभित समुद्र में रत्न से भरे हुए जहाज की सुरक्षा करता है उसीप्रकार उपदेश का अवलम्बन लेने वाले धैर्यवान् विद्वत्जन परीषह रूपी तरङ्गों से क्षोभित तृष्णा रूपी समुद्र में गुणों से युक्त तप रूपी पोत की सुरक्षा करते हैं ( अर्थात् आराधना करते हैं)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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