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महामस्यामानाकीक
( अभ्युद्यत्तमरण प्ररूपणा ) (१२६) (जिनकल्पी मुनि का ) यह एकाकी विहार जिनोपदिष्ट है और
विद्वत्जनों के द्वारा प्रशंसनीय है। महापुरुषों के द्वारा आचरित
और जिनकल्पियों द्वारा सेवित यह मरण ( अभ्युद्यतमरण ) जानने
योग्य है। (१२७) ( साधक ऐसा कहे कि ) चरम तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट जीवन
के अन्तिम समय में करने योग्य कल्याणकारी समाधिमरण (अभ्युद्यतमरण ) को जीवन की सन्ध्यावेला में ( मैं ) नियमपूर्वक अंगीकार करता हूँ।
( आराधनापताका प्राप्ति प्ररूपणा) (१२८) बत्तीस प्रकार के योग संग्रह बल से मण्डित कृतयोगी बारह प्रकार
के तपों के अमृत का पान करके उसका समापन करे। (१२९) ( साधक ) बुद्धिबलरूपी लंगोट को कसकर संसाररूपी रंगमंच
पर मोहरूपी मल्ल को पराजित कर आराधनारूपी पताका को
फहराता है। (१३०) संस्तारक ( अर्थात् मृत्यु शैय्या) पर आरूढ़ ( साधक ) पुराने
कर्मों का क्षय करता है और अन्य नये कर्म संचित नहीं करता
है तथा कर्म कलंकरूपी लता का छेदन करता है। (१३१) ( जो ) संयमी साधक आराधना ( समाधिमरण ) से युक्त होकर
सम्यक् प्रकार से मृत्यु को प्राप्त करता है (वह) अधिक से अधिक तीन भव में जाकर ( अर्थात् तीन भव करके) निर्वाण
प्राप्त करता है। (१३२) धीरपुरुषों द्वारा प्ररूपित और सत्पुरुषों द्वारा सेवित अति कठिन
आराधना के द्वारा (साधक ) संसार समुद्र को अवतीर्ण कर
निर्विघ्नरूप से धर्मरूपो पताका को फहराता है। (१३३) स्थिरबुद्धि (स्थितप्रज्ञ ) रूपी लंगोट से युक्त धीर साधक सूत्र
और अर्थ का अनुचितन करता हुआ उस देश और काल में
(धर्मरूपी ) पताका को फहराता है। (१३४) चार कषाय, तीन गारब और पाँच इन्द्रियग्राम (पाँच इन्द्रियों
के.विषय:) तथा परीषहरूपी सेवा का विनाश करके ( साधक ) आराधनारूपी पताका को फहराता है।
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