________________
महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक (११४) अरहंत, सिद्ध, साधु, श्रुतज्ञान और धर्म मेरे लिए कल्याणकारी है।
इनकी शरण में जाकर ( मैं ) पापकर्म को त्यागता हूँ। (११५) अरहंत मेरे लिए मंगल है और अरहंत मेरे लिए पूजनीय है। अर
हन्तों को स्मरण करता हुआ ( मैं ) पापकर्म को त्यागता हूँ। (११६) सिद्ध मेरे लिए मंगल है और सिद्ध मेरे लिए पूजनीय है। सिद्धों
को स्मरण करता हुआ ( मैं ) पापकर्म को त्यागता हूँ। (११७) आचार्य मेरे लिए मंगल है और आचार्य मेरे लिए पूजनीय है।
आचार्यों को स्मरण करता हुआ ( मैं ) पापकर्म को त्यागता हूँ। (११८) उपाध्याय मेरे लिए मंगल है और उपाध्याय मेरे लिए पूजनीय है।
उपाध्यायों को स्मरण करता हुआ( मैं ) पापकर्म को त्यागता हूँ। (११९) साधु मेरे लिए मंगल है और साधु मेरे लिए पूजनीय है।
साधुओं को स्मरण करता हुआ ( मैं ) पापकर्म को त्यागता हूँ। (१२०) इस प्रकार भावपूर्वक सिद्ध, अरहंत और केवलि-इनमें से किसी
एक भी पद की शरण ग्रहणकर ( व्यक्ति) इस ( लोक ) में आराधक होता है।
. ( वेदना सहन का उपदेश ) (१२१) वेदना के उत्पन्न होने पर श्रमण हृदय के द्वारा क्या विचार करे ?
मुनि आलम्बन करता है और आलम्बन करके ही दुःख को सहन
करता है। (१२२) वेदना के उत्पन्न होने पर सत्त्व को (प्राणी को) क्या सम्बोधित
करना चाहिए । आलम्बन के कारण ही वह दुःख तुझे प्राप्त हुआ
है । अतः समभावपूर्वक उसे सहन कर । (१२३) अन्तिम नरक में विद्यमान ( जीवों की ) वेदनाएँ अत्यधिक (कष्ट
कर होती हैं )। प्रमाद के वशीभूत होकर मैंने (उस अवस्था को)
अनन्तबार प्राप्त किया है । (१२४) मेरे द्वारा अज्ञान से युक्त होने के कारण ये ( क्रूर ) कर्म किये
गये हैं । पूर्वकाल में भी मेरे द्वारा अनेकबार ये कर्म किये गये। (१२५) उन-उन (क्रूर) कर्मों को करने के कारण ( मैं ) उन दुःखविपाकों
को प्राप्त हुआ हूँ। (ये) पूर्वकृत कर्म जीव के ही हैं, अजीव के नहीं । ऐसा विचार करना चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org