Book Title: Agam 26 Prakirnak 03 Maha Pratyakhyan Sutra Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit SamsthanPage 92
________________ महात्यायनप्रकीर्णक २७ मुक्ति को प्राप्त करता है और ( जो ) असंवेगी ( आसक्त ) होता है ( वह ) अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है । ( जिनधर्म में श्रद्धा ) (१०७) वीतराग द्वारा प्ररूपित इस सम्यक् धर्म में ( मैं ) तीनों प्रकार से ( अर्थात् मन, वचन व काया से ) श्रद्धा करता हूँ । ( यह धर्म ) स एवं स्थावर जीव समूह के लिए हितकारी है तथा निर्वाण प्राप्ति का मार्ग है । ( विविध त्याग प्ररूपणा ) (१०८) प्रथम तो मैं श्रमण हूँ और दूसरे में सर्वथा संयत भी हूँ इसलिए जिनदेवों के द्वारा जो-जो भी निषिद्ध हैं, उन सबका में त्याग करता हूँ । (१०९) ( मैं ) उपधि ( परिग्रह ), शरीर एवं चारों प्रकार के आहार. का मन, वचन और काया से भावपूर्वक त्याग करता हूँ । ( ११०) मन से जो चिन्तन करने योग्य नहीं है, वचन से जो कहने योग्य नहीं है और शरीर से जो करने योग्य नहीं है - उन सभी निषिद्ध कर्मों का ( साधक ) तीनों प्रकार से ( अर्थात् मन, वचन एवं काया से ) त्याग करे । ( प्रत्याख्यान से समाधि प्राप्ति ) (१११) आपत्तिकाल में साधक असंयम का त्याग करे, उपधि ( अर्थात्. परिग्रह ) का विवेक करे और उपशम भाव को धारण करे । असम्यक् मन, वचन एवं काया के व्यापार से विरत होए तथा क्षमा भाव और वैराग्य भाव का विवेक बनाए रखे ( अर्थात् उनका बोध करे ) । (११२) आपत्तिकाल में आतुरजन भाव पूर्वक इस और इस प्रकार के अन्य प्रत्याख्यानों को ग्रहण करता हुआ समाधि को प्राप्त करता है । ( अरहंत आदि एक पद के शरण ग्रहण एवं प्रत्याख्यान करने से आराधकत्व ) (११३ ) ऐसे अवसर पर प्रत्याख्यान करके यदि ( मुनि) कालधर्म को ( अर्थात् मत्यु को ) प्राप्त होता है तो वह इस प्रत्याख्यान के एकही पद से ( समाधि को प्राप्त होता है ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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