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महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक
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( ९८ ) जिस समय व्यक्ति प्रमत्त, जिनवचन रहित और असावधान होता है उस समय इन्द्रियरूपी चोर तप और संयम का विलोपन करते हैं (अर्थात् हरण कर लेते हैं ) ।
( संवर माहात्म्य )
(९९) जिस प्रकार वायु सहित अग्नि ( वृक्ष को ) जड़-मूल से अर्थात् पूर्णतया जला देती है उसी प्रकार जिनवचन का अनुसरण करने वाली बुद्धि जब संवर भावना में प्रविष्ठ होती है तब कर्म को सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर देती है ।
(१००) जिस प्रकार वायु सहित अग्नि वृक्षों एवं हरे-भरे वन प्रदेश को भी जला देती है उसी प्रकार पुरुषार्थ युक्त ज्ञानी व्यक्ति कर्म को जानकर उनका क्षय कर देता है ।
( ज्ञान - प्राधान्य प्ररूपणा )
( १०१) अज्ञानी व्यक्ति जिन विपुल कर्मों को करोड़ों वर्षों में क्षय करता है, उन कर्मों को त्रिगुप्ति से युक्त ज्ञानी व्यक्ति एक श्वास-मात्र में ही क्षय कर देता है ।
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(१०२) निश्चय ही मृत्यु के समीप होने पर बारह प्रकार के श्रुतस्कन्ध ज्ञाता के द्वारा भी समर्थचित्त से उन सबका अनुचितन करना संभव नहीं है ।
(१०३) जिस एक पद के द्वारा ( व्यक्ति ) वीतराग के मत ( अर्थात् धर्म मार्ग) में संवेग ( वैराग्य भाव ) को प्राप्त करता है, वैराग्य को प्राप्त कराने वाला वह पद ही उस व्यक्ति का ज्ञान होता है ।
(१०४) जिस एक पद के द्वारा (व्यक्ति) वीतराग के मत ( अर्थात् धर्म मार्ग) में संवेग को प्राप्त करता है, वह पद आध्यात्मयोग के द्वारा उसके मोह जाल को छिन्न कर देता है ।
( १०५) जिस एक पद के द्वारा (व्यक्ति) वीतराग के मत ( अर्थात् धर्मं मार्ग) में संवेग को प्राप्त करता है, उस पद का बार-बार उच्चारण करता हुआ ( वह ) मनुष्य मरकर भी नहीं मरता है (अर्थात् अमर हो जाता है ) ।
(१०६) जिनसे वैराग्य उत्पन्न होता है उन उनको सर्वथा सम्मानपूर्वक आचारित करना चाहिए । क्योंकि ( जो ) संवेगी होता है ( वह )
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