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महापच्चक्लाणपइण्णय तीन भवों का उल्लेख है जबकि अन्य आगमों की मान्यता में उत्कृष्ट पन्द्रह भव में मोक्ष जाता है।"
४. "देविन्दस्तव में स्त्री के लिए अहो सुन्दरी ! आमन्त्रण है । आचारांग में स्त्री के लिए बहिन का सम्बोधन है। सुन्दरी का सम्बोधन समुचित नहीं है।"
५. “महापच्चक्खाण गाथा ६२ में देवेन्द्र तथा चक्रवर्तीत्व समस्त जीव अनन्तबार उपलब्ध हुए हैं। प्रत्येक जीव चक्रवर्तीत्व अनन्तबार उपलब्ध नहीं हो सकते। कथन आगम विरुद्ध है, इसको मान्य नहीं किया जा सकता।"
इस प्रकार यहाँ हम देख है कि मुनिजी ने आतुरप्रत्याख्यान, गणिविद्या, तंदुलवैचारिक, चन्द्रव पक, देवेन्द्रस्तव और महाप्रत्याख्यान के कुछ कथन लेकर सभी प्रकीर्णकों को आगम विरुद्ध बतलाने का प्रयास किया है। मुनि जी ने चन्द्रवेध्यक और तन्दुलवैचारिक को अमान्य करने के लिए जो तर्क दिए हैं उनकी पुष्टि : उन्होंने आगम के कोई सन्दर्भ नहीं दिए हैं। सन्दर्भ के अभाव में उनके कथन की प्रामाणिकता कैसे स्वीकार की जा सकती है ?
देवेन्द्रस्तव के बारे में उनका जो आक्षेप है वह कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता, क्योंकि वहाँ किसी मुनि ने नहीं वरन् किसी श्रावक ने अपनी पत्नी को सुन्दरी कहा है । पुनः सुन्दरी शब्द का प्रयोग तो उपासकदशांग' और भगवतीसूत्र' आदि आगमों में भी मिलता है।
आतुरप्रत्याख्यान, गणिविद्या और महाप्रत्याख्यान के सम्बन्ध में मुनि जी ने जो आक्षेप लगाए हैं, यहाँ हम उनका यथासम्भव निराकरण करना चाहेंगे। ___ आतुरप्रत्याख्यान के सम्बन्ध में मुनि जी का आक्षेप यह है कि उसमें सात स्थानों पर धन के उपयोग करने का आदेश है, यह कथन सावध होने के कारण अमान्य है। गुरुभक्ति, सार्मिक भक्ति आदि में सम्पत्ति का उपयोग होना किस अर्थ में सावध है, यह हमें समझ में नहीं आ रहा है। मुनि के लिए औद्देशिक रूप से भोजनादि चाहे न बनाए जाएँ किन्तु उन्हें जो दान दिया जाता है उसमें सम्पत्ति का विनियोग तो होता
१. उपासकदशांग-'सुन्दरी णं देवाणुप्पिया', उदृत-पाइअसद्दमहण्णवो-पृष्ठ
९११-९१२ । ३. भगवती ९/३३; उदृत-अर्द्धमागधी कोश, भाग ४, पृष्ठ ७७६ ।
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