Book Title: Agam 26 Prakirnak 03 Maha Pratyakhyan Sutra Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit SamsthanPage 68
________________ महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक (मंगल और अभिषेय) (१) इस प्रकार ( मैं ) सिद्धगति को प्राप्त समस्त तीर्थंकरों, जिन-देवों, सिद्धों और संयमियों को प्रणाम करता हूँ। (२) समस्त दुःखों से सर्वथा मुक्त सिद्धों और अर्हतों को नमस्कार हो। जिनप्रशप्त तत्त्व-स्वरूप पर ( मैं ) श्रद्धा रखता है और पापकर्म का प्रत्याख्यान करता हूँ। (विविध प्रत्याख्यान) (३) जो कुछ भी मेरा दुश्चरित्र है, उसकी ( मैं ) सर्वभाव से निंदा करता हूँ और सभी प्रकार के अपवाद से रहित सामायिक को त्रिविध रूप से ग्रहण करता हूँ। (४) (समाधिमरण ग्रहण करने वाला साधक ) सभी प्रकार के बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह, भोजन एवं शरीर आदि का मनसा, वाचा एवं कर्मणा तीनों प्रकार से त्याग करे। (५) ( साधक ) राग-द्वेष रूप बन्धन, हर्ष-विषाद, उत्सुकता, भय-शोक और रति-अरति ( सभी) का त्याग करे। (सर्व जीव क्षमापना) (६) ( साधक ऐसा कहे कि) रोष, पश्चाताप, कृतघ्नता तथा कपट वृत्ति से जो कुछ भी मेरे द्वारा कहा गया है, उसके लिए मैं त्रिविध रूप से क्षमा माँगता हूँ। (७) समस्त जीवों को ( मैं ) क्षमा करता हूँ, समस्त जीव मुझे क्षमा करें । आश्रवों को त्यागकर ( मैं ) समाधि का प्रतिसन्धान करता - हूँ ( अर्थात् अपने को समाधि से योजित करता हूँ )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:Page Navigation
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