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महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक (आलोचक का स्वरूप और मोक्षगामित्व ) (२२) जिस प्रकार बालक ( अपने ) कार्य-अकार्य को सहजभाव से व्यक्त
कर देता है उसी प्रकार साधक को (अपने समस्त दोषों की )
आलोचना कपट एवं अहंकार का त्याग करके करनी चाहिए। (२३) सरलचित्त वाले की ही शुद्धि होती है और जिसका चित्त शुद्ध है
उसमें ही धर्म स्थित रहता है तथा ( जिसमें धर्म स्थित रहता है, वह ही) परम निर्वाण को प्राप्त करता है, जैसे धी से सिक्त अग्नि।
(शल्योद्धरण प्ररूपणा). (२४) जिनशासन में इस प्रकार कहा गया है कि कर्मरज से रहित
व्यक्ति भी यदि माया आदि तीन शल्यों से युक्त है तो वह मुक्ति को प्राप्त नहीं करता है। किन्तु जिस जीव ने समस्त शल्यों का मोचन कर दिया है, वह क्लेश रहित जीव मुक्ति को प्राप्त
करता है। (२५) अत्यधिक भाव शल्य से युक्त जो ( शिष्य ) गुरु के समीप (अपनी)
आलोचना कर लेते हैं, (वे) समाधिमरण को प्राप्त करते हैं
और आराधक होते हैं। (२६) अल्पतम भाव-शल्य से युक्त जो ( शिष्य ) गुरु के समीप (अपनी)
आलोचना नहीं करते हैं, वे श्रुतज्ञान से समृद्ध होते हुए भी
आराधक नहीं होते हैं। (२७-२८) दुष्प्रयुक्त शस्त्र, विष, प्रेत, असम्यक् प्रकार से संचालित यन्त्र एवं
क्रुद्ध सर्प भी प्रमादी का उतना अनिष्ट नहीं करते जितना अनिष्ट समाधिकाल में मन में रहे हुए माया, मिथ्यात्व एवं निदान रूप भाव-शल्य करते हैं ( इससे) बोधि की प्राप्ति
दुर्लभ हो जाती है और ( व्यक्ति ) अनंतसंसारी हो जाता है।। (२९) इसीलिए गर्व-रहित ( साधक ) पुनर्जन्म रूपी लता के मूल मिथ्या
दर्शन शल्य, माया शल्य एवं निदान (शल्य ) को ( अन्तरंग से) निकाल देते हैं।
(आलोचना फल) (३०) गुरु के सानिध्य में ( अपने ) कृत पाप की आलोचना और निन्दा
करके मनुष्य शीघ्र ही उसी प्रकार निर्भार हो जाता है, जिस प्रकार बोझ को उतार देने पर बोझा ढोने वाला।
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