Book Title: Agam 26 Prakirnak 03 Maha Pratyakhyan Sutra
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक १३ (३९) लोक में वालाग्रकोटि ( संख्या विशेष ) मात्र भी वह स्थान ( अवशिष्ट ) नहीं रहा है, जहाँ संसार में परिभ्रमण करते हुए ( इस जीव ने ) जन्म-मरण न किया हो । (४०) लोक में योनियों के चौरासी लाख मुख्य भेद कहे गए हैं और ( यह जीव ) इन प्रत्येक योनियों में अनन्तबार उत्पन्न हुआ है । ( पंडितमरण प्ररूपणा ) ( ४१ ) ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् लोक में मेरे द्वारा अनेक बार बालमरण ( अज्ञान - मरण) मरा गया है । इसलिए (अब मैं ) उन बाल-मरणों को स्मरण करता हुआ पंडितमरण ( समाधिमरण ) मरूँगा । (४२-४३) माता-पिता, भाई-बहिन और पुत्र-पुत्री रूप इन ( सांसारिक संबंधों की अशरणता ) को स्मरण करता हुआ में पंडितमरण मरूँगा । क्योंकि माता, पिता, बन्धु और संसार में विविध योनियों में रहे हुए समस्त प्राणी न तो ( किसी के) रक्षणकर्ता है और न त्राणदाता ही है । (४४) जीव अकेला कर्म करता है, अकेला अपने दुष्कर्मों के विपाक को भोगता है और अकेला ही जरा मरण को प्राप्त कर कुटिल चतुगति में परिभ्रमण करता है । (४५) जन्म, मरण, उद्विग्नता तथा नारकीय जीवन में जो वेदनाएं हैंइनको स्मरण करता हुआ ( अब मैं ) पंडितमरण मरूँगा । (४६) जन्म, मरण, उद्विग्नता तथा तियंच जीवन में जो वेदनाएँ हैंइनको स्मरण करता हुआ ( अब मैं ) पंडितमरण मरूँगा । (४७) जन्म, मरण, उद्विग्नता तथा मानव जीवन में जो वेदनाएँ हैंsant स्मरण करता हुआ ( अब मैं ) पंडितमरण मरूँगा । (४८) जन्म, मरण, उद्विग्नता तथा देवलोक से च्युति - इनको स्मरण करता हुआ (अब मैं ) पंडितमरण मरूँगा । (४९) एक पण्डितमरण सैकड़ों भव-परम्परा का अन्त कर देता है इसलिए वह मरण ( अर्थात् पंडितमरण ) ही मरना चाहिए, जिससे मरण सुमरण हो जाता है । (५०) जिनेन्द्रों के द्वारा उसी सुमरण को पंडितमरण कहा गया है । माया, निदान और मिथ्या शल्य को ( शरीर से ) बाहर किया: हुआ ( मैं क्या ) शुद्ध प्रायोपगमन मरण मरूँगा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115