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महात्वाख्यानमकीर्णक
(प्रायश्चित अनुसरण प्ररूपणा) (३१) (शिष्य के अपराध को जानकर ) सन्मार्ग-विज्ञ गुरु ( उसे ) जिस
प्रायश्चित का निर्देश करते हैं, अनवस्था-भीरु उस (शिष्य ) को
उसी प्रकार उसका अनुसरण करना चाहिए। (३२) दस दोषों से विमुक्त (वह शिष्य ) समस्त ( दोषों को) बिना
छिपाए हुए ही जो कुछ भी कार्य-अकार्य किया है, उसको उसी प्रकार ( गुरु के समक्ष ) कह दे। (प्राण-हिंसा आदि का प्रत्याख्यान और असण आदि
का परित्याग) (३३) सभी प्रकार की प्राण-हिंसा, असत्य बन, अदत्त ग्रहण (स्तेन
कर्म ), अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह को ( मैं ) त्यामता हूँ। (३४) असण, पान आदि चार प्रकार के आहार, समस्त बाह्य उपधि
(परिग्रह ) एवं जो अभ्यन्तर उपधि (कषाय-भाव) हैं, (साधक उन ) सभी को तीनों प्रकार से त्यागे।
(निर्दोष पालन, भाव शुद्ध और प्रत्याख्यान स्वरूप) (३५) भयानक अटवी, दुर्भिक्ष अथवा अत्यधिक आतंकपूर्ण स्थिति के
उत्पन्न होने पर भी जो आचार-नियम खण्डित नहीं किये जाते,
उनका पालन ही निर्दोष जानौं। (३६) राग, द्वेष तथा भाव से जो (प्रत्याख्यान ) दूषित नहीं होता, उसी
प्रत्याख्यान को भाव-विशुद्ध जानना चाहिए।
( वैराग्य उपदेश) (३७) ( यह जीव ) अनन्त संसार में (परिभ्रमण करते हुए ) अलग___ अलग माताओं के स्तनों का इतना अधिक दूध पो चुका है कि
( उसकी मात्रा ) समुद्र के जल से भी बहुत अधिक है। (३८) (यह जीव संसार में परिभ्रमण करते हुए ) बार-बार उन-उन
योनियों में इतना अधिक रोया है कि ( उसके) नयनोदक (अश्रुरूपी जल ) ( की मात्रा ) समुद्र के जल से भी बहुत अधिक जानों।
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