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महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक
(१५) (जीव ) अकेला कर्म करता है, उसके फल को भी अकेला ही
भोगता है। अकेला जन्म लेता है, मरता है तथा अकेला ही परलोक
को जाता है। (१६) ज्ञान-दर्शन से युक्त यह अकेली शाश्वत 'आत्मा ही मेरी ( स्व ) है
(तथा) संयोग लक्षण से युक्त शेष समस्त पदार्थ मेरे लिए बाह्य (पर) है।
(संयोग सबन्ध परित्याग) (१७) संयोग संबंध के कारण ही जीव दुःख परम्परा को प्राप्त होते हैं
इसलिए (साधक ) समस्त सांयोगिक संबंधों को तीनों प्रकार से त्यागे।
( असंयम आदि की निन्दा और मिथ्यात्व का त्याग) (१८) असंयम, अज्ञान, मिथ्यात्व तथा सभी जीव-अजीवों में निहित
ममत्व-उन ( सब ) की ( मैं ) निन्दा और गर्दा करता हूँ। सब प्रकार के असंयम, अप्रामाणिकता और मिथ्यात्व को मैं जानता हूँ। इसलिए सब प्रकार से ममत्व का त्याग करता हूँ और सबसे (मैं ) क्षमायाचना करता हूँ।
( अन्नात अपराब आलोचना) (२०) जिन-जिन स्थितियों में मेरे द्वारा जो-जो अपराध हुए हैं, ( उन
सबको) तीर्थंकर जानते हैं। इसलिए मैं उन (अपराधों) को सर्वथा प्रकार से आलोचना करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ।
(माया निहनन उपदेश) (२१) उत्पन्न या अनुत्पन्न माया परित्याग करने योग्य है । निन्दा और
गहाँ से (वह) पुनः उत्पन्न नहीं होती।
१. संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में आत्मा पुलिङ्ग शब्द है किन्तु हिन्दी भाषा में
आत्मा शब्द स्त्रीलिङ्ग रूप में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी स्त्रीलिंग रूप में ही अर्थ किया गया है।
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