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महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक
( निन्दा, गर्दा और आलोचना) (८) निन्दा करने योग्य की (मैं ) निन्दा करता हूँ और गहीं करने
योग्य मेरे जो दोष हैं, उनकी गहीं करता हूँ तथा जो-जो भी (पाप कर्म ) जिनदेवों के द्वारा निषिद्ध हैं, उन सबकी (मैं) आलोचना करता हूँ।
( ममत्व छेदन और आत्म-धर्म स्वरूप) (९) शरीर संबंधी चारों प्रकार के आहार, उपकरण तथा सर्वद्रव्यों की
असहाय-दशा एवं उनके प्रति रहे हुए ( मेरे ) ममत्व को (मैं) जानता हूँ।
(१०) निर्ममत्व ( अर्थात् वैराग्य भाव ) में उपस्थित ममत्व को (में)
जानता हूँ। आत्मा ही मेरा आलम्बन है (यह जानकर साधक)
शेष सभी ( परद्रव्यों का ) त्याग करे। (११) आत्मा मेरा ज्ञान है, आत्मा ही मेरा दर्शन और चारित्र है । आत्मा
ही प्रत्याख्यान है तथा आत्मा ही मेरा संयम और योग ( कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया ) है।
(. मूलगुण, उत्तरगुण की आराधना पूर्वक आत्म-निन्दा) (१२) प्रमाद के कारण मूलगुण और उत्तरगुण में जिन ( गुणों) की
आराधना मैं नहीं कर पाया हूँ, उन सबकी निन्दा करता हूँ एवं प्रतिक्रमण करता हूँ तथा भविष्य में आने वाले ( दोषों का प्रत्याख्यान करता हूँ )।
( एकत्व भावना) (१३) मैं अकेला हूँ, मेरा कोई भी नहीं है, मैं भी किसी का नहीं है।
इस प्रकार निरपेक्ष भाव से (साधक ) आत्मा को अनुशासित
करे। (१४) जीव अकेला उत्पन्न होता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है।
अकेले की ही मृत्यु होती है ( तथा ) अकेला ही कर्मरूपी मल से रहित होकर मुक्त (भी) होता है।
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