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महापञ्चवाणपइण्णयं
लब्धताड़पत्रीय प्रतियाँ भी यही प्रमाणित करती है कि यह ग्रन्थ पर्याप्त रूप से प्राचीन है ।
महाप्रत्याख्यान के रचनाकाल के सन्दर्भ में विचार करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य हमारे समक्ष यह है कि इसमें द्वादशविध श्रुतस्कन्ध का उल्लेख हुआ है ।" इसका तात्पर्य यह है कि जब कभी यह ग्रन्थ अस्तित्व में आया होगा तब तक द्वादश-विध श्रुतस्कन्ध अस्तित्व में आ चुके थे । हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि द्वादश अंगों की अवधारणा जैन परम्परा में पर्याप्त प्राचीन है । द्वादशअंगों का उल्लेख स्थानांगर, समवायांग आदि प्राचीन आगम ग्रन्थों में भी मिलता है । यद्यपि इस कथन से इस ग्रन्थ के रचनाकाल को निर्धारित कर पाने में कोई विशेष सहायता तो नहीं मिलती है किन्तु इस आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि जब द्वादशविध श्रुतस्कन्ध अस्तित्व में आया होगा तब ही इस ग्रंथ की रचना हुईं होगी । ग्रन्थ में उल्लिखित द्वादश अंगों के कथन से यह अर्थ भी स्वतः ही फलीभूत होता है कि इस ग्रन्थ की रचना द्वादशअंगों की रचना के बाद तथा पूर्व साहित्य के लुप्त होने के पूर्व हुई होगी। इस ग्रन्थ में द्वादश अंगों का उल्लेख, किन्तु नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी के नामों का अभाव यही सूचित करता है कि इस ग्रन्थ की रचना ईसा की द्वितीय शताब्दी के बाद तथा पाँचवों शताब्दी के पूर्व कभी हुई होगी ।
रचनाकाल के सम्बन्ध में ही एक और बात ध्यान देने योग्य है कि इस ग्रन्थ में समाधिमरण के प्रसंग में कहीं भी गुणस्थानों की चर्चा नहीं हुई है जबकि समाधिमरण की विषयवस्तु का प्रतिपादन करने वाले यापनीय परम्परा के मान्य ग्रन्थ भगवती आराधना और मूलाचार में भी गुणस्थानों की चर्चा की गई है। हमने अपने एक स्वतन्त्र निबन्ध में गुणस्थान की विकसित अवधारणा का काल तत्त्वार्थभाष्य के पश्चात् अर्थात् तीसरी शताब्दी के बाद और सर्वार्थसिद्धिटीका के पूर्व अर्थात् पाँचवीं-छठीं शताब्दी के पूर्व माना है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि गुणस्थान की अवधारणा लगभग पाँचवीं शताब्दी के आसपास कभी पूर्णत: विकसित हुई है। इससे भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महाप्रत्या
१. गाथा, १०२ ।
२. स्थानांग १० / १०३ ।
३. समवायांग १ / २ ।
४. श्रमण (जनवरी-मार्च १९९२)
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