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महापच्चक्खाण पइण्णयं
करने का उपदेश है (१३ - १७) । निन्दा, गर्हा, और आलोचना किसकी को जाए, इसके विषय में कहा गया है कि असंयम, अज्ञान और मिथ्यात्त्व आदि की निन्दा और गर्हा तथा ज्ञात-अज्ञात सभी प्रकार के अपराधों की आलोचना करनी चाहिए ( १८-२० ) । माया के विषय में कहा गया है कि वह अपनाने के लिए नहीं वरन् त्यागने के लिए होती है । साधु को अपने समस्त दोषों की आलोचना माया एवं मद त्यागकर करनी चाहिए (२१-२३) ।
कौन जीव सिद्ध होता है ? इस विषयक निरूपण करते हुए कहा गया है कि वही जीव सिद्ध होता है, जिसने माया आदि तीन शल्यों का मोचन कर दिया हो । मिथ्या, माया और निदान इन तीनों शल्यों को अनिष्टकारी बतलाते हुए कहा है कि समाधिकाल में यदि ये शल्य मन में उपस्थित रहते हैं तो बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है, परिणाम स्वरूप जीव अनन्तसंसारी हो जाता है । इसलिए सजग साधक पुनर्जन्म से बचने के लिए इन शल्यों को हृदय से निकाल फेंकता है (२४-२९) ।
इसमें शिष्य के लिए यह उपदेश है कि उसे अपने द्वारा किये गये सभी कार्य अकार्य को गुरु के समक्ष यथारूप कह देना चाहिए और फिर गुरु जो प्रायश्चित दे, उसका अनुसरण करना चाहिए (३०-३२) ।
सभी प्रकार की प्राण-हिंसा, असत्यवचन, अदत्तग्रहण, अब्रह्मचर्य और परिग्रह को मन, वचन व काया से त्यागने का भी निर्देश है। लोक में योनियों के चौरासी लाख मुख्य भेद बतलाते हुए कहा है कि जीव प्रत्येक योनि में अनन्तबार उत्पन्न होता है (३३ - ४०) ।
पण्डितमरण को प्रशंसनीय बताते हुए कहा गया है कि माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री ये सभी न तो किसी के रक्षणकर्ता है और न ही त्राणदाता | जीव अकेला ही कर्म करता है और उसके फल को भी अकेला ही भोगता है । व्यक्ति को चाहिए कि वह नरक-लोक, तियंच-लोक और मनुष्य-लोक में जो वेदनाएँ हैं उन्हें तथा देवलोक में जो मृत्यु है, उन सबका स्मरण करते हुए पण्डितमरण पूर्वक मरे । क्योंकि एक पण्डित - मरण सैंकडों भव-परम्परा का अन्त कर देता है ( ४१-५० ) ।
सचित्त आहार, विषयसुख एवं परिग्रह आदि की विशेष चर्चा करते हुए इन्हें दु:खदायक बतलाया है तथा इनका त्याग करने की प्रेरणा दी गई है (५१-६० ) । साथ ही क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और तृष्णा को त्यागने तथा महाव्रतों का पालन करने का उपदेश है (६१-७० ) ।
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