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५५ ही हैं। शेष अन्य गावाओं का प्रयोजन साधक को समाधिभरण की स्थिति में अपनी मनोवृत्तियों को किस प्रकार रखना चाहिए, इसका निर्देश करना है।
समाधिमरण की अवधारणा जैन आगम साहित्य में आचारांग के काल से ही पाई जाती है। आचारांग का प्रथम श्रुत स्कन्ध न केवल समाधिमरण की प्रेरणा देता है, अपितु उसकी प्रक्रिया भी स्पष्ट करता है।' उत्तराध्ययनसूत्र के पांचवें अध्याय में बालमरण और पंडितमरण के स्वरूप को लेकर विस्तृत चर्चा है। जैन साहित्य में वर्णित अनेक जीवन चरित्र भी साधना के अन्त में समाधिमरण ग्रहण करते हुए ही चित्रित किये गये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ महाप्रत्याख्यान जैसाकि इसके नाम से हो स्पष्ट है,यह भी समाधिमरण का ही सूचक है या दूसरे शब्दों में कहें तो यह समाधिमरण से ही संबंधित ग्रन्थ है।
समाधिमरण का तात्पर्य है कि अब मृत्यु जीवन के द्वार पर उपस्थित होकर अपने आगमन की सूचना दे रही हो तो साधक को चाहिए कि वह देह पोषण के प्रयत्नों का परित्याग कर दे तथा शरीर के प्रति निर्ममत्व भाव की साधना करे और द्वार पर उपस्थित मृत्यु से मुंह छिपाने की अपेक्षा उसके स्वागत हेतु स्वयं को तत्पर रखे। वस्तुतः समाधिमरण शान्त भाव से मृत्यु का आलिङ्गन करने की प्रक्रिया है वह साधना की परीक्षा घड़ी है । इसे हम यों समझ सकते हैं कि यदि किसी साधक ने जीवनभर वीतरागता और समता की साधना की हो, किन्तु मृत्यु के समय पर यदि वह विचलित हो जाए तो उसकी सम्पूर्ण साधना एक प्रकार से वैसे ही निष्फल हो जाती है, जैसे कोई विद्यार्थी यदि परीक्षा में सफल नहीं होता है तो उसका अध्ययन सार्थक नहीं माना जाता है। समाधिमरण हमारे जीवन की साधना की परीक्षा है और महाप्रत्याख्यान हमें उसी परीक्षा में खरा उतरने का निर्देश देता है। ___ समाधिमरण न तो जीवन से पलायन है और न ही आत्महत्या है, अपितु वह मृत्यु के आलिङ्गन की एक कला है और जिसने यह कला नहीं सीखी, उसका जीवन सार्थक नहीं बन पाता है। एक उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है
१. आचारांग, प्रथम श्रुत स्कन्ध, अध्ययन ८, उद्देशक २. उत्तराध्ययन ५/२-३ ।
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