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भूमिका
आगे की गाथाओं में षट्लेश्याओं और ध्यान से सम्बन्धित विवरण है, यहाँ कहा गया है कि कृष्ण, नील और कपोत लेश्या तथा आर्त और रौद्र ध्यान-ये सभी त्यागने योग्य हैं, किन्तु तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या तथा धर्म और शुक्ल ध्यान-ये अपनाने योग्य हैं । षट्लेश्याओं और ध्यान का विवरण स्थानांग', समवायांगर, उत्तराध्ययन आदि आगम ग्रन्थों में भी मिलता है (७१-७२)।
त्रिगुप्ति, पंचसमिति और द्वादश भावना से उपसम्पन्न होकर संयती पाँच महाव्रतों की रक्षा करने का कथन किया गया है (७३-७६) । साथ ही गप्तियों और समितियों को ही व्यक्ति का शरणदाता एवं त्राणदाता बतलाया है (७७)।
आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध करने में सभी समर्थ नहीं हैं। आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध करने में कौन समक्ष है? यह कथन करते हुए कहा है कि यदि सद्पुरुष अनाकांक्ष और आत्मज्ञ हैं तो वे पर्वत को गुफा, शिलातल या दुर्गम स्थानों पर भी अपनी आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध कर लेते हैं (८०-८४)। ____ अकृत-योग और कृत-योग के गुण-दोष की प्ररूपणा करते हुए कहा है कि कोई श्रुत सम्पन्न भले ही हों, किन्तु यदि वह बहिर्मुखी इन्द्रियों वाला, छिन्न चारित्र वाला, असंस्कारित तथा पूर्व में साधना नहीं किया हुआ है तो वह मृत्यु के समय में अवश्य अधोर हो जाता है। ऐसा व्यक्ति मृत्यु के अवसर पर परोषह सहन करने में असमर्थ होता है। किन्तु जो व्यक्ति विषयसुखों में आसक्त नहीं रहता, भावीफल की आकांक्षा नहीं रखता तथा जिसके कषाय नष्ट हो गए हों, वह मृत्यु को सामने देखकर भी विचलित नहीं होता, अपितु तत्परतापूर्वक मृत्यु का आलिंगन कर लेता है (८५-९३) । वस्तुतः यही समाधिमरण की अवस्था है। प्रत्येक जैन मतावलम्बी अपने जीवन के अन्तिम क्षण में समस्त प्रकार के क्लेषों से मुक्त हो, राग-द्वेष को त्याग करके इसी प्रकार मरने की अभिलाषा करता है।
समाधिमरण का हेतु क्या है ? इस विषय में कहा गया है कि न तो तृणों की शय्या ही समाधिमरण का कारण है और न प्रासुक भूमि हो, १. स्थानांग १/१९१, ३/१/५८, ३/४/५१५, ४/१/६० । २. समवायांग ४/२०, ६/३१ । ३. उत्तराध्ययन ३०/३५, ३१/८ ।
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