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महापच्चक्खाणपइण्णयं अपितु जिसका मन विशुद्ध होता है, दूसरे शब्दों में कहें तो जिसने चतुर्विध कषायों पर विजय प्राप्त कर ली हो, वही आत्मा संस्तारक होती
__ साधक जिस एक पद से धर्म मार्ग में प्रविष्ट होता है उस पद को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है और कहा है कि साधक को चाहिए कि वह जीवन के अन्तिम समय तक भी उस पद का परित्याग नहीं करे (१०१-१०६) । ___ग्रन्थ में जिनेन्द्र देवों द्वारा प्ररूपित धर्म को कल्याणकारी बतलाया है तथा कहा है कि मन, वचन एवं काया से इस पर शृद्धा रखनी चाहिए क्योंकि यही निर्वाण प्राप्ति का मार्ग है (१०७)। आगे की गाथाओं में विविध प्रकार के त्यागों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो मन से चिन्तन करने योग्य नहीं है, वचन से कहने योग्य नहीं हैं, तथा शरीर से जो करने योग्य नहीं हैं, उन सभी निषिद्ध कर्मों का साधक त्रिविध रूप से त्याग करे (१०८-११०)।
अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-इन पाँच पदों को पूजनीय माना गया है तथा कहा है कि इनका स्मरण करके व्यक्ति अपने पाप कर्मों का त्याग करे (११४-१२०)। वेदना विषयक चर्चा करते हुए कहा है कि यदि मुनि आलम्बन करता है तो उसे दुःख प्राप्त होता है। समस्त प्राणियों को समभावपूर्वक वेदना सहन करने का उपदेश दिया गया हैं (१२१-१२२)।
ग्रन्थ में जिनकल्पी मुनि के एकाकीविहार को जिनोपदिष्ट और विद्वत्जनों द्वारा प्रशंसनीय बतलाया है तथा जिनकल्पियों द्वारा सेवित अभ्युद्यतमरण को प्रशंसनीय कहा है (१२६-१२७)। साधक के लिए कहा है कि वह चार कषाय, तीन गारव, पाँचो इन्द्रियों के विषय तथा परीषहों का विनाश करके आराधनारूपी पताका को फहराए (१३४) । ___ संसार समुद्र से पार होने और कर्मों को क्षय करने का उपदेश देते हुए कहा गया है कि हे साधक ! यदि तू संसाररूपी महासागर से पार होने की इच्छा करता है तो यह विचार मत कर कि "मैं चिरकाल तक जीवित रहूँ अथवा शीघ्र ही मर जाऊ।" अपितु यह विचार कर कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और जिनवचन के प्रति सजग रहने पर ही मुक्ति सम्भव है (१३५-१३६) ।
उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने अपने ग्रन्थ 'जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा' में महाप्रत्याख्यान की विषयवस्तु का वर्णन करते हुए
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