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भूमिका
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मान चौकी शताब्दी से पूर्व की रचना है । निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि महाप्रत्याख्यान दूसरी से चौथी शताब्दी के मध्य कभी निर्मित हुआ है । विषयवस्तु-
महाप्रत्याख्यान में कुल १४२ गाथाएँ हैं, जिनमें निम्नलिखित विषय वस्तु का विवरण उपलब्ध होता है
ग्रन्थ का प्रारम्भ मंगलाचरण से करते हुए सर्वप्रथम तीर्थंकरों, जिनदेवों, सिद्धों और संयमियों को प्रणाम किया गया है तत्पश्चात् बाह्य एवं अभ्यन्तर समस्त प्रकार की उपधि का मन, वचन एवं काया - तीनों प्रकार से त्याग करने का कथन है (१-५) ।
समस्त जीवों के प्रति समताभाव का कथन करते हुए कहा गया है कि सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ और समस्त जीव मुझे क्षमा करे । साथ ही निन्दा करने योग्य कर्म की निन्दा, गर्हा करने योग्य कर्म की गर्हा और आलोचना करने योग्य कर्म की आलोचना करने का भी कथन है (६-८) । इसमें व्यक्ति को यह प्रेरणा दी गई है कि वह ममत्व के स्वरूप को जानकर निर्ममत्व में स्थिर रहे । आत्मा के विषय में कहा गया है कि आत्मा ही प्रत्याख्यान है तथा संयम व योग भी आत्मा ही है (९-११) । अग्रिम गाथा में मूलगुणों और उत्तरगुणों की सम्यक् परिपालन नहीं करने की निन्दा की गई है । उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने अपने ग्रन्थ 'जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा' में महाप्रत्याख्यान की विषयवस्तु का वर्णन करते हुए इस गाथा का अर्थ इस प्रकार किया है- "साधक को मूलगुण और उत्तरगुणों का प्रतिक्रमण करना चाहिए ।" मूल ग्रंथ को देखने से ज्ञात होता है कि वहाँ मूलगुणों और उत्तरगुणों का प्रतिक्रमण करने के लिए नहीं कहा गया है वरन् वहाँ तो स्पष्ट लिखा है कि प्रमाद के द्वारा मूलगुणों और उत्तरगुणों में जिन (गुणों) की मैं जो आराधना नहीं कर पाया हूँ, उस सबकी निन्दा करता हूँ (१२) ।
आत्मा विषयक निरूपण करते हुए कहा गया है कि आत्मा ही व्यक्ति की स्व (अपनी ) है, शेष समस्त पदार्थ उसके नहीं होकर पर (बाह्य) हैं । साथ ही दुःख परम्परा के कारण संयोग सम्बन्धों को त्रिविध रूप से त्याग
१. जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृष्ठ ३९० ।
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