________________
... भूमिका
१५ क्षमाश्रमण को एक ही मानने की भ्रान्ति की हैं। इस भ्रान्ति के शिकार मुनि श्री कल्याणविजय जी भी हुए हैं, किन्तु उल्लेखों के आधार पर जहाँ देवद्धि के गुरु आर्य शांडिल्य हैं, वहीं देववाचक के गुरु दूष्यगणी है । अतः यह सुनिश्चित है कि देववाचक और देवद्धि एक ही व्यक्ति नहीं हैं। देववाचक ने नन्दीसूत्र स्थविरावली में स्पष्ट रूप से दूष्यगणी का उल्लेख किया है।
पं० दलसुखभाई मालवणिया ने देववाचक का काल वीर निर्वाण संवत् १०२० अथवा विक्रम संवत् ५५० माना है, किन्तु यह अन्तिम अवधि ही मानी जाती है। देववाचक उससे पूर्व ही हुए होंगे। आवश्यक नियुक्ति में नन्दो और अनुयोगद्वार सूत्रों का उल्लेख है, और आवश्यकनियुक्ति को द्वितीय भद्रबाहु की रचना भी माना जाय तो उसका काल विक्रम को पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध ही सिद्ध होता है । इन सब आधारों से यह सुनिश्चित है कि देववाचक और उसके द्वारा रचित नन्दीसूत्र ईसा की पाँचवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की रचना है। इस सन्दर्भ में विशेष जानने के लिए हम मुनि श्री पुण्यविजय जी एवं पं० दलखसुखभाई मालवाणिया के नन्दीसत्र की भूमिका में देवाचक के समय सम्बन्धी चर्चा को देखने का निर्देश करेंगे। चूंकि नन्दीसूत्र में महाप्रत्याख्यान का उल्लेख है, अतः इस प्रमाण के आधार पर हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि यह ग्रन्थ ईसवी सन् की ५वीं शताब्दी के पूर्व निर्मित हो चुका था। किन्तु इसको रचना की उत्तर सीमा क्या हो सकती है, यह कह पाना कठिन है। महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक की अनेक गाथाएँ उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन आगम में, आवश्यकनियुक्ति, उत्तराध्ययननियुक्ति तथा ओघनियुक्ति आदि नियुक्तियों में तथा मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक, तित्थोगाली, संस्तारक, आराधनापताका तथा आराधनाप्रकरण आदि प्रकीर्णकों में साथ ही यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रंथों भगवती आराधना, मूलाचार, नियमसार, समयसार, भावपाहुड आदि में हैं। ये सभी ग्रन्थ ईसवी सन् को पाँचवीं-छठी शताब्दी के मध्य के हैं। यद्यपि यहाँ यह निर्धारित कर पाना कठिन है कि ये सभी गाथाएं इन ग्रन्थों से महाप्रत्याख्यान में ली गई हैं या महाप्रत्याख्यान से ये गाथाएँ इन ग्रन्थों में गई हैं, फिर भी जो ग्रन्थ नन्दी से परवर्ती हैं उनमें ये गाथाएँ महाप्रत्याख्यान से ही गई होगी, यह माना जा सकता है । विशेष रूप से मूलाचार, भगवती आराधना आदि में उपलब्ध होने वाली समान गाथाएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में महाप्रत्याख्यान से ही गई होगी। पुनः इस ग्रन्थ की उप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org