Book Title: Agam 26 Prakirnak 03 Maha Pratyakhyan Sutra
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 22
________________ प्रारम्भ में लोकाशाह जोर स्थानकवासी परम्परा को बत्तीस आगम ही उपलब्ध हो सके इसीलिए उन्होंने बत्तीस आगमों को ही मान्य रखा और जब एकबार बत्तीस आगमों की परम्परा उनके द्वारा स्वीकार कर ली गई तो फिर उसे परिवर्तित करने का प्रश्न ही नहीं उठता था। अतः बाद में प्रकीर्णकों के उपलब्ध होने पर भी उन्हें आगम रूप में मान्य नहीं किया। प्रकीर्णकों में तित्थोगाली, गणिविद्या आदि एक-दो प्रकीर्णक ऐसे भी हैं जो इनकी परम्परा से कुछ भिन्न कथन करते हों, तो भी सम्पूर्ण प्रकीर्णक साहित्य को अस्वीकार कर देना उचित नहीं हैं। ऐसी स्थिति में तो हमें अनेक आगम ग्रन्थों को भी अस्वीकार कर देना होगा, क्योंकि उनमें तो इन प्रकीर्णकों की अपेक्षा भी अधिक ऐसे कथन हैं जो इनकी मान्यताओं के विपरीत जाते हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति में गणिविद्या की अपेक्षा अधिक सावध उपदेश हैं। और जहाँ तक परम्पराओं से भिन्न कथन का प्रश्न है तो. आगमों में प्रकीर्णकों की अपेक्षा भी जिन प्रतिमा और जिन पूजा के ज्यादा उल्लेख मिलते हैं, क्या ऐसे उल्लेख करने वाले स्थानांगरे, ज्ञाताधर्मकथा और राजप्रश्नीय आदि को हम आगम रूप में मानने से इन्कार करना चाहेंगे? जो भूल दिगम्बरों ने श्वेताम्बर आगम साहित्य को अमान्य करने को की। संभवत वही भूल स्थानकवासी और तेरापंथी प्रकीर्णकों को अमान्य करके कर रहे हैं । इसका जो दुःखद परिणाम है वह यह कि स्थानकवासी और तेरापंथी समाज विशुद्ध रूप से उपदेशात्मक, तप प्रधान एवं चारित्र प्रधान इस विपुल ज्ञान सम्पदा से वंचित रह गया है। जबकि हमें देखना यह चाहिए कि ये ग्रन्थ मनुष्य के आध्यात्मिक, साधनात्मक एवं चारित्रिक मूल्यों के विकास में कितना योगदान करते हैं। यदि हमें इनके अध्ययन करने के पश्चात् ऐसा लगे कि इनमें उपयोगी सामग्री रही हुई है तो यत्किचित मान्यता भेद के रहते हुए भी इन्हें आगम रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए और इनके अध्ययन-अध्यापन को भी विकसित करना चाहिए। १. सूर्यप्रज्ञप्ति, १०/१७ (श्रीहर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला)। २. 'चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामईओ'-स्थानांगसूत्र-मधुकर मुनि, ४/३३९ । ३. 'पवरपरिहिया जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ'-ज्ञाताधर्मकथा-मधुकर मुनि, १६/११८ ४. 'तासि गं जिणपडिमाणं-राजप्रश्नीयसूत्र-मधुकर मुनि, सूत्र १७७-१७९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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