Book Title: Agam 26 Prakirnak 03 Maha Pratyakhyan Sutra
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 21
________________ महापच्चमइण्णय हो, व्यवहार में तो सभी दीक्षा मुहूर्त आदि देखते ही हैं और उसका पालन भी करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ महाप्रत्याख्यान को मुनि जी ने जयाचार्य द्वारा अस्वीकृत करने का कारण इस ग्रन्थ की ६२वीं गाथा बतलाया है। इस गाथा का मूल भाव यह है कि इस जीव ने देवेन्द्र, चक्रवर्तीत्व एवं राज्यों के उत्तम भोगों को अनन्तबार भोगा है फिर भी इसे तृप्ति प्राप्त नहीं हुई है। इस सम्बन्ध में मुनि जी का कहना है-"इस गाथा में देवेन्द्र तथा चक्रवर्तीत्व समस्त जीव अनन्तबार उपलब्ध हए है, ऐसा कथन है। प्रत्येक जीव चक्रवर्तीत्व अनन्तबार उपलब्ध नहीं हो सकते। यह कथन आगम विरुद्ध है, इसको मान्य नहीं किया जा सकता।" इस सम्बन्ध में हमारा निवेदन इस प्रकार है कि प्रथम तो यह कथन समस्त जीवों के लिए है ही नहीं, जैसा कि मुनि जी ने कहा है। मूलगाथा में यह कहीं भी स्पष्ट रूप से नहीं लिखा है कि प्रत्येक जीव चक्रवर्तीत्व अनन्तबार उपलब्ध हो सकते हैं और दूसरा यह एक उपदेशात्मक गाथा है इसका उद्देश्य मात्र यह बतलाना है कि अनेक बार श्रेष्ट भोगों को प्राप्त करके भी यह जीव तृप्त नहीं हुआ है । इस सामान्य कथन को इसकी भावना के विपरीत अर्थ में लेना समुचित नहीं है। भारतीय गरीब है-यह एक सामान्य कथन है, इसका यह अर्थ लेना उचित नहीं होगा कि कोई भी भारतीय धनवान नहीं है । मुनि जी ने अपने कथन में एक बार 'समस्त जीव' और दूसरी बार "प्रत्येक जीव' कहकर प्रत्येक शब्द पर बिशेष बल देकर ही इस ग्रन्थ को अमान्य बताया है । हमारे मतानुसार मुनि जी को यह भ्रान्ति इस गाथा में लिखे हुए 'पत्ता' शब्द का ठीक से अर्थ न कर पाने के कारण हुई है, संभवतया मुनि जी ने इसी 'पत्ता' शब्द का अर्थ 'प्रत्येक' कर दिया है। वस्तुतः 'पत्ता' शब्द का अर्थ प्रत्येक नहीं होकर 'प्राप्त किया' ऐसा अर्थ है। यदि यहाँ इस रूप में 'पत्ता' शब्द का अर्थ किया जाता तो मुनि जी को ऐसी भ्रान्ति नहीं होती। यहाँ हम एक बात और स्पष्ट रूप से कहना चाहेंगे, वह यह कि आगम ग्रन्थों में जो भी कथन हैं, वे सब सापेक्षिक है। कोई भी जिनवचन निरपेक्ष नहीं होते। यदि निरपेक्ष दृष्टि से आगमों का अर्थ किया जाएगा तो जिन बत्तीस आगमों को स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय प्रामाणिक मान रहे हैं, उनमें भी ऐसी अनेक विसंगतियाँ दिखाई जा सकती हैं जो इनकी परम्परा के विरुद्ध मानी जाएगी। वास्तविकता तो यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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