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... भूमिका .... ही है। बिना धन के भोजन, वस्त्र और मुनि जीवन के उपकरण आदि प्राप्त नहीं किये जा सकते। पुनः प्रवचन भक्ति और स्वधर्मी वात्सल्य का उल्लेख तो ज्ञाताधर्मकथा में तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन के सन्दर्भ में भी हुआ है । ' अन्न, वस्त्रादि के दान को तो पुण्यरूप भी माना गया है । अपने इस कथन की पुष्टि में हम कहना चाहेंगे कि तीर्थंकरों के द्वारा भी दीक्षा लेने के पूर्व दान देने का उल्लेख आगम ग्रन्थों में मिलता है। २. हम मुनि जी से यह जानना चाहेंगे कि क्या तीर्थंकर द्वारा दिया गया दान धन के विनियोग के बिना होता है ? क्या वह सावध होता है ? साधु सावध भाषा न बोले, यह बात तो समझ में आ सकती है किन्तु वह गृहस्थ को उसके दान आदि कर्तव्य का बोध भी न कराए, यह कैसे मान्य किया जा सकता है ? हमें समझ में नहीं आ रहा है कि सार्मिक-भक्ति आदि का उल्लेख होने मात्र से आतुरप्रत्याख्यान जैसे चारित्रगुण और साधना प्रधान प्रकीर्णक को मुनि जी ने कैसे अमान्य बतलाने प्रयास किया है ?
गणिविद्या को अस्वीकार करने का तर्क मुनि जी ने यह दिया है कि उसमें कुछ विशिष्ट नक्षत्रों में दीक्षा, केशलोच और गुरु सेवा आदि नहीं करने के लिए कहा गया है। आगे मुनि जी ने यह भी लिखा है कि गणिविद्या श्रवण नक्षत्र में दीक्षा लेने का निषेध करती है जबकि मुनि जी का कहना है- "२० तीर्थंकरों ने श्रवण नक्षत्र में दीक्षा ग्रहण की, ऐसा आगमों में उल्लेख है। आगमों में जिस कार्य को मान्य किया जाए उसके विपरीत जो उसका निषेध करे, उसे कैसे मान्य किया जाए।" हम मुनि जी से पूछना चाहेंगे कि उनके द्वारा मान्य ३२ आगमों में कौन-सा ऐसा आगम ग्रन्थ है, जिसमें यह उल्लेख मिलता हो कि २० तीर्थंकरों की दीक्षा श्रवण नक्षत्र में हुई । पता नहीं मुनि जी ने किस आधार पर यह कथन किया है । यदि वे आगमिक प्रमाण देते तो इस विषय में आगे विचार किया जा सकता था। दीक्षा के नक्षत्र आदि की चर्चा तो परवर्ती ग्रन्थों में ही है, आगमों में नहीं है। कम से कम ३२ आगमों में तो ऐसा कथन है ही नहीं। यहाँ हम एक बात और कहना चाहेंगे कि सैद्धान्तिक रूप से भले ही दीक्षा, केशलोच आदि के लिए नक्षत्र आदि का उल्लेख नहीं मिलता हो, किन्तु जहाँ तक हमें ज्ञात है चाहे वह स्थानकवासी, तेरापंथी या अन्य कोई भी परम्परा
१. ज्ञाताधर्मकथासूत्र ८/१४ । २. वही, ८/१५४ ।
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