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गोपनियुक्ति तथा महानिशीथ-इस प्रकार कुल तेरह आगम ग्रन्थों को अस्वीकार करके ४५ आगमों में से ३२ आगमों को ही स्वीकार किया है। प्रकीर्णक तथा तीन अन्य ग्रन्थों को आगम रूप में अमान्य करने के जो कारण इन दोनों परम्पराओं द्वारा बताए जाते हैं, वे यह हैं कि प्रकीर्णकों तथा इन तीन ग्रन्थों में अनेक ऐसे कथन हैं जो मूल आगमों और इनकी परम्परागत मान्यताओं के विरुद्ध हैं।
मुनि किशनलाल जी ने प्रकीर्णकों को अमान्य करने के लिए निम्नलिखित कारणों का उल्लेख किया है
१. “आउरपच्चक्खाण, गाथा ८ में पंडितमरण का अधिकार कहा गया है। गाथा ३१ में सात स्थानों पर धन (परिग्रह) का उपयोग करने का आदेश है। गाथा ३० में गुरुपूजा, सामिनी भक्ति आदि सात बोलों का निर्देश है। आउरपच्चक्खाण की साक्षी है किन्तु भत्तपइण्णा में नाम नहीं है । सावद्य (पाप सहित) भाषा का उपयोग सूत्र में नहीं हो सकता, इसलिए यह अमान्य है।"
२. "गणिविज्जा पइन्ने में भी ज्योतिष की प्ररूपणा की है। उसके उदाहरण हैं-श्रवण, धनेष्टा, पुर्नवसु-तीन नक्षत्रों में दीक्षा नहीं लेनी चाहिए (गाथा २२) । लेकिन २० तीर्थंकरों ने श्रवण नक्षत्र में दीक्षा ग्रहण की, ऐसा आगमों में उल्लेख है। आगम में जिस कार्य को मान्य किया उसके विपरीत उसका निषेध करे, उसे कैसे मान्य किया जाए। उसका आधार क्या हो सकता है ? आगे वहीं आया है-किसी-किसी नक्षत्र में गुरु की सेवा नहीं करनी चाहिए, लुञ्चन नहीं करना चाहिए ये सब बातें आगम में अनुमोदित नहीं है। इसलिए इनको मान्य नहीं किया गया है।"
३. "तन्दुलवेयालियं में संठाण के सम्बन्ध में जो चर्चा है, वह आगमों में सूचित निर्देशों से भिन्न है। परस्पर मेल नहीं खाती । वहाँ लिखा हैपाचवें आरे के मनुष्य के अन्तिम संहनन और संठाण होता है। दूसरे आगमों में छह ही संठाण संहनन मनुष्यों में पाए जाने की सूचना है। परस्पर विरोधाभास से तंदुलवेयालियं को बात कैसे मान्य की जा सकती है ? ऐसे अप्रामाणिक वचन 'चन्दगविज्झय' गाथा ९८ में साधु के उत्कृष्ट
१. आगमों की प्रामाणिक संख्या : जयाचार्यकृत विवेचन-तुलसीप्रज्ञा-खंड १६,
अंक १ (जून १९९०)
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