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महापच्चा गणपण्णयं अवधारणा से सम्बन्धित हैं। महाप्रत्याख्यान शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है-सबसे बड़ा प्रत्याख्यान । प्रत्याख्यान का तात्पर्य त्याग से है। इस अनुसार सबसे बड़ा त्याग महाप्रत्याख्यान कहलाता है। व्यक्ति के जीवन में सबसे बड़ा त्याग यदि कोई है तो वह है-देह त्याग । प्रत्याख्यानपूर्वक देह त्याग करने को ही समाधिमरण कहा जाता है। समाधिमरण का विशेष उल्लेख होने से ही प्रस्तुत कृति को महाप्रत्याख्यान नाम दिया गया है । नन्दचूणि और पाक्षिकसूत्र में महाप्रत्याख्यान का परिचय देते हुए जिस प्रकार समाधिमरणका उल्लेख हुआ है, उससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि महाप्रत्याख्यान का सम्बन्ध समाधिमरण से है।
समाधिमरण से सम्बन्धित विषयवस्तु वाले ग्रंथों में महाप्रत्याख्यान के अतिरिक्त और भी अनेक ग्रंथ हैं जैसे-आतुरप्रत्याख्यान, मरणविभक्ति, मरणसमाधि, मरणविशुद्धि, संलेखनाश्रुत, भक्तपरिज्ञा और आराधना आदि । समाधिमरण से सम्बन्धित इन सभी ग्रन्थों को एक ग्रन्थ में समाहित करके उसे 'मरणविभक्ति' नाम दिया गया है । उपलब्ध मरणविभक्ति में मरणविभक्ति, मरणसमाधि, मरणविशुद्धि, संलेखनाश्रुत, भक्तपरिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और आराधना-ये आठ प्रन्थ समाहित हैं। इन आठ ग्रन्थों में से मरणविभक्ति, मरणसमाधि, संलेखनाश्रुत, भक्तपरिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान-इन ग्रन्थों के नाम हमें नन्दीसूत्र मूल और उसकी चूर्णी में मिलते हैं। किन्तु शेष दो ग्रन्थ मरणविशुद्धि और आराधना के नाम नन्दीसूत्र मूल और उसकी चूर्णी में उपलब्ध नहीं है। महाप्रत्याख्यान का मरणविभक्ति में समाहित किया जाना इस बात का सूचक है कि वह समाधिमरण से सम्बन्धित रचना है। ग्रन्थ का महाप्रत्याख्यान नाम इसलिए भी सार्थक है कि इसमें प्राणी की रागात्मकता या आसक्ति के मूल केन्द्र शरीर के ही परित्याग पर बल दिया गया है, वस्तुतः इसी अर्थ में यह ग्रन्थ महाप्रत्याख्यान कहा जाता है। प्रकीर्णकों को मान्यता का प्रश्न__ श्वेताम्बरों में चाहे ८४ आगम मानने वाली परम्परा हो, चाहे ४५ आगम मानने वाली परम्परा हो-दोनों ने प्रकीर्णक ग्रन्थों को आगम रूप में स्वीकार किया है । किन्तु स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा जो ३२ आगमों को ही मान्य कर रही हैं, उन्होंने दस प्रकीर्णक, जीतकल्प, १. (क) नन्दीसूत्र ८०।
(ख) नन्दीसूत्र ८०, चूर्णी पृष्ठ ५८ ।
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