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महापञ्चक्खाणपइण्णयं
पाक्षिकसूत्र वृत्ति में महाप्रत्याख्यान का परिचय देते हुए कहा गया है—'महाप्रत्याख्यानम् अत्रायं भावः स्थविरकल्पिका विहारेणैव संलीढाः प्रान्तेऽनशनौच्चारं कुर्वन्ति एवमेतत्सर्वम् सविस्तरं वर्ण्यते यत्र तन्महाप्रत्याख्यानम् ।" अर्थात् जो स्थविरकल्पी जीवन की सन्ध्या वेला में विहार करने में असमर्थ होते हैं, उनके द्वारा जो अनशनव्रत (समाधिमरण ) स्वीकार किया जाता है, उन सबका जिसमें विस्तार से वर्णन किया गया है, उसे महाप्रत्याख्यान कहते हैं ।" इस प्रकार पाक्षिकसूत्र वृत्ति में मात्र स्थविरकल्पिकों के समाधिमरण का ही उल्लेख मिलता है। जिन कल्पी समाधिमरण कैसे स्वीकारते हैं, इस सम्बन्ध में पाक्षिकसूत्र वृत्ति में कोई विवेचन नहीं दिया गया है ।
नन्दीसूत्र चूर्णि में महाप्रत्याख्यान का परिचय देते हुए कहा गया है - "थेरकप्पेणं जिणकप्पेण वा विहरित्ता अंते थे कप्पिया बारस वासे संलेहं करेत्ता, जिणकप्पिया पुण विहारेणेव संलीढा तहा वि जहाजुतं संलेहं करेत्ता निव्वाघातं सचेट्ठा चेव भवचरिमं पच्चक्वंति, एतं सवित्थरं जत्थऽझयणे वणिज्जंति तमज्झयणं महापच्चक्खाणं ।" अर्थात् स्थविरकल्प और जिनकल्प के द्वारा विचरण करने वालों में से स्थविर - कल्पी अन्तिम समय में (स्थिरवास करके) बारह वर्ष में संलेखना करते हैं जबकि जिनकल्पी विहार करते हुए ही संलेखना के योग्य अवसर आ जाने पर संलेखना स्वीकार करते हैं और निरपवाद प्रयत्नपूर्वक जीवन पर्यन्त का (आहारादि का) प्रत्याख्यान करते हैं, इसका जिस अध्ययन में सविस्तार वर्णन किया गया है, वह अध्ययन महाप्रत्याख्यान है । "
महाप्रत्याख्यान के विषय में नन्दीचूर्णि की इस व्याख्या से ऐसा लगता है कि उस समय स्थविरकल्पिकों और जिनकल्पिकों को संलेखना विधि में अन्तर था । स्थविरकल्पी वृद्धावस्था की स्थिति को जानकर अपनी विहारचर्या को स्थगित कर देते थे और एक स्थानपर स्थित होकर (स्थिरवास करके) क्रमिक रूप से आहारादि का त्याग करते हुए बारह वर्ष तक की दीर्घ अवधि की संलेखना करते थे । इसका एक तात्पर्य यह भी है कि वे आहारादि में धीरे-धीरे कमी करते हुए क्रमशः
१. पाक्षिकसूत्र, पृष्ठ ७८ ।
२. नन्दीसूत्र चूर्णि पृष्ठ ५० ( प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी) ।
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