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भूमिका
आहारादि के सम्पूर्ण त्याग की दिशा में आगे बढ़ते थे, जबकि जिनकल्पी सतत् रूप से विहार करते रहते थे और जब उन्हें यह आभास हो जाता है कि अब विहारचर्या सम्भव नहीं है तो वे आहारादि का त्याग करके संलेखना स्वीकार कर लेते थे । इस तथ्य की पुष्टि वर्तमान में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा की प्रचलित संलेखना विधि से हो जाती है । दिगम्बर परम्परानुसार जब मुनि विहार करने में असमर्थ हो जाता है, यहाँ तक कि उसके लिए भिक्षार्थ जाना भी जब सम्भव नहीं रहता है तो वह मुनि संलेखना स्वीकार कर लेता है क्योंकि इस परम्परा में दूसरों के द्वारा लाए गए आहार को ग्रहण करने की परम्परा नही है, जबकि श्वेताम्बर परम्परानुसार वृद्धावस्था में मुनि स्थिरवासी हो जाते हैं और क्रमशः आहारादि कम करते हुए संलेखना स्वीकार करते हैं । यह अलग बात है कि स्थिरवासी हो जाने के पश्चात् भी सभी मुनि आहारादि कम नहीं करते हैं ।
नन्दी चूर्ण में स्थविरकल्पियों और जिनकल्पियों को जो भिन्न-भिन्न संलेखना विधि बतलाई गई है, वह इन दोनों कल्पों की चर्या की दृष्टि से उचित प्रतीत होती है । आज भी दिगम्बर मुनि किसी न किसी रूप में जिनकल्प का पालन तो करते ही हैं और श्वेताम्बर मुनि स्थविरकल्प के निकट है । यह एक अलग बात है कि आज बारह वर्ष को संलेखना करने की विधि प्रचलन में नहीं रह गई है किन्तु बारह वर्ष की इस संलेखना विधि का उल्लेख दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना में भी मिलता है ।" यापनीय परम्परा तो आपवादिक स्थिति में दूसरों के द्वारा लाए गए आहार को ग्रहण करने की अनुमति भी देती है । भगवती आराधना में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि संलेखना करने वाले मुनि के लिए चार मुनि आहारादि लाए और चार मुनि उस आहारादि की रक्षा करे । इस प्रकार यापनीय परम्परा में भी स्थविरकल्प और जिनकल्प दोनों का उल्लेख मिलता है ।
नामकरण की सार्थकता -
प्रस्तुत कृति को महाप्रत्याख्यान कहा गया है । प्रकीर्णक ग्रन्थों में महाप्रत्याख्यान और आतुरप्रत्याख्यान - ये दोनों ग्रन्थ समाधिमरण की
१. भगवती आराधना, गाथा २५४ । २. वही, गाथा ६६१-६६३ ।
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