________________ व्यवहार-शब्दरचना वि+व+ह-+धा / 'वि' और 'अव' ये दो उपसर्ग हैं। हज-हरणे धातु है / 'ह' धातु से 'पा' प्रत्यय करने पर हार बनता है। वि+व+हार---इन तीनों से व्यवहार शब्द की रचना हुई है। 'वि'--विविधता या विधि का सूचक है। 'प्रव'--संदेह का सूचक है। 'हार'-हरण क्रिया का सूचक है। फलितार्थ यह है कि विवाद विषयक नाना प्रकार के संशयों का जिससे हरण होता है वह 'व्यवहार' है। यह व्यवहार शब्द का विशेषार्थ है। व्यवहारसूत्र के प्रमुख विषय 1. व्यवहार, 2. व्यवहारी और 3. व्यवहर्तव्य-ये तीन इस सूत्र के प्रमुख विषय हैं। ___ दसवें उद्देशक के अन्तिम सूत्र में प्रतिपादित पांच व्यवहार करण (साधन) हैं, गण की शुद्धि करने वाले गीतार्थ (प्राचार्यादि) व्यवहारी (व्यवहार क्रिया प्रवर्तय) कर्ता हैं, और श्रमण श्रमणियां व्यवहर्तव्य (व्यवहार करने योग्य) हैं / अर्थात् इनकी अतिचार शुद्धिरूप क्रिया का सम्पादन व्यवहारज्ञ व्यवहार द्वारा करता है। जिस प्रकार कुम्भकार (कर्ता), चक्र, दण्ड मृत्तिका सूत्र आदि करणों द्वारा कुम्भ (कर्म) का सम्पादन करता है-इसी प्रकार व्यवहारज्ञ व्यवहारों द्वारा व्यवहर्तव्यों (गण) की अतिचार शुद्धि का सम्पादन करता है। व्यवहार-व्याख्या व्यवहार की प्रमुख व्याख्यायें दो हैं / एक लौकिक व्याख्या और दूसरी लोकोत्तर व्याख्या / लौकिका व्याख्या दो प्रकार की है--१. सामान्य और 2. विशेष / सामान्य व्याख्या है-दूसरे के साथ किया जाने वाला आचरण अथवा रुपये-पैसों का लेन-देन / विशेष व्याख्या है-अभियोग की समस्त प्रक्रिया अर्थात न्याय / इस विशिष्ट व्याख्या से सम्बन्धित कुछ शब्द प्रचलित हैं। जिनका प्रयोग वैदिक परम्परा की श्रुतियों एवं स्मृतियों में चिरन्तन काल से चला मा रहा है। यथा-- 1. व्यवहारशास्त्र-(दण्डसंहिता) जिसमें राज्य-शासन द्वारा किसी विशेष विषय में सामूहिक रूप से बनाये गये नियमों के निर्णय और नियमों का भंग करने पर दिये जाने वाले दण्डों का विधान व विवेचन होता है। 1. 'वि' नानार्थे 'ऽव' संदेहे, 'हरणं' हार उच्यते / नाना संदेहहरणाद, व्यवहार इति स्थितिः 1-कात्यायन / नाना विवाद विषयः संशयो हियतेऽनेन इति व्यवहारः / 2. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहागणसोहिकरे नाम एगे नो माणकरे।.... ----व्यव० पुरुषप्रकार सूत्र 3. गाहा-वहारी खलु कत्ता, ववहारो होई करणभूतो उ। वहरियव्वं कज्ज, कुभादि तियस्स जह सिद्धी / / --व्य० भाध्यपीठिका गाथा 2 4. न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः / व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा / / -हितो० मि० 72 5. परस्परं मनुष्याणां, स्वार्थविप्रतिपत्तिषु / वाक्यानयायाद् व्यवस्थान, व्यवहार उदाहृतः / / मिताक्षरा। [16] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org