________________ प्रस्तुत प्रसंग में कल्प शब्द का अर्थ धर्म-मर्यादा है। साधु आचार ही धर्म-मर्यादा है। जिस शास्त्र में धर्ममर्यादा का वर्णन हो बह कल्प है, नाम विषयानुरूप ही है। जिस शास्त्र का जैसा विषय हो वैसा नाम रखना यथार्थ नाम कहलाता है। साधुधर्म के आन्तरिक और बाह्य-आचार का निर्देश एवं मर्यादा बताने वाला शास्त्र कल्प कहलाता है। जिस सूत्र में भगवान महावीर, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ऋषभदेव का जीवनवृत्त है, उस शास्त्र के अंतिम प्रकरण में साधु समाचारी का वर्णन है। वह पर्युषणाकल्प होने से लघुकल्प है। उसकी अपेक्षा से जिसमें साधु-मर्यादा का वर्णन विस्तृत हो, वह वहत्वल्प कहलाता है। इसमें सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि इन तीनों चारित्रों के विधि विधानों का सामान्य रूप से वर्णन है / बृहत्कल्प शास्त्र में जो भी वर्णन है उन सबका पालन करना उक्त चारित्रशीलों के लिये अवश्यंभावी है / विविध सूत्रों द्वारा साधु साध्वी की विविध मर्यादाओं का जिसमें वर्णन किया गया है, उसे बहत्कल्पसूत्र कहते है / प्राकृत भाषा में बिहक्कप्पसुत्तं रूप बनता है। प्रस्तुत "कप्पसुत्तं" (कल्पसूत्र) और “कप्पसुय" (कल्पश्रुत) एक हैं या भिन्न हैं ? यह आशंका अप्रासंगिक है, क्योंकि "कप्पसुत्तं" कालिक आगम है। अाचारदशा अर्थात् दशाश्रुतस्कन्ध का आठवां अध्ययन "पर्युषणाकल्प" है, इसमें केवल वर्षावास की समाचारी है। कुछ शताब्दियों पहले इस “पर्युषणाकल्प" को तीर्थंकरों के जीवनचरित्र तथा स्थविरावली से संयुक्त कर दिया गया था। यह शनैः-शनै: कल्पसूत्र के नाम से जनसाधरण में प्रसिद्ध हो गया। इस कल्पसूत्र से प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम भिन्न दिखाने के लिए प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम बहत्कल्पसूत्र दिया गया है। वास्तव में बृहत्कल्पसूत्र नाम के आगम का किसी आगम में उल्लेख नहीं है। नन्दीसत्र में इसका नाम "कप्पो" है / कप्पसुयं के दो विभाग हैं "चुल्लकप्पसुयं" और "महाकप्पसुर्य" / इसी प्रकार "कप्पियाकप्पियं" भी उत्कालिक आगम है। ये सब प्रायश्चित्त-विधायक आगम हैं, पर ये विच्छिन्न हो गये हैं ऐसा जैनसाहित्य के इतिहासज्ञों का अभिमत है। कल्प वर्गीकरण प्रस्तुत "कल्पसुत्तं" का मूल पाठ गद्य में है और 473 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण है / इसमें 81 विधि-निषेधकल्प हैं / ये सभी कल्प पांच समिति और पांच महाव्रतों से सम्बन्धित हैं / अतः इनका वर्गीकरण यहाँ किया गया है। जिन सूत्रों का एक से अधिक समितियों या एक से अधिक महाव्रतों से सम्बन्ध है, उनका स्थान समिति और महाव्रत के संयुक्त विधि-निषेध और महाव्रतकल्प शीर्षक के अन्तर्गत है। उत्तराध्ययन अ० 24 के अनुसार ईर्यासमिति का विषय बहुत व्यापक है, इसलिए जो सूत्र सामान्यतया ज्ञान, दर्शन या चारित्र आदि से सम्बन्धित प्रतीत हुए हैं उनको "ईर्यासमिति के विधि-निषेधकल्प" शीर्षक के नीचे स्थान दिया है। वर्गीकरणदर्शक प्रारूप इस प्रकार है (1) ईर्यासमिति के विधि-निषेध कल्प—१. चारसूत्र, 2. अध्वगमनसूत्र, 3. आर्यक्षेत्रसूत्र, 4. महानदीसूत्र, 5. बैराज्य–विरुद्धराज्यसूत्र, 6. अन्तगृहस्था, 7. वाचनासूत्र, 8. संज्ञाप्यसूत्र, 9. गणान्तरोपसम्पत्सूत्र, 10. कल्पस्थितिसूत्र / 1. अभिधान राजेन्द्र : भाग तृतीय पृष्ठ 239 पर "कप्पसुयं" शब्द का विवेचन / [14] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org