Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ साथ मिलने से भरत एक क्षण अजमंजस में पड़ गये। 56 वे सोचने लगे कि मुझे प्रथम कौनसा कार्य करना चाहिये ? पहले चक्ररत्न की अर्चना करनी चाहिये या पुत्रोत्सव मनाना चाहिये या प्रभु की उपासना करनी चाहिये ? दूसरे ही क्षण उनकी प्रत्युत्पन्न मेधा ने उत्तर दिया कि केवलज्ञान का उत्पन्न होना धर्मसाधना का फल है, पुत्र उत्पत्र होना काम का फल है और देदीप्यमान चक्र का उत्पन्न होना अर्थ का फल है।५० इन तीन पुरुषार्थों में प्रथम पुरुषार्थ धर्म है, इसलिये मुझे सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव की उपासना करनी चाहिये / चक्ररत्न और पुत्ररत्न तो इसी जीवन को सुखी बनाता है पर भगवान् का दर्शन तो इस लोक और परलोक दोनों को ही सुखी बनाने वाला है / अतः मुझे सर्वप्रथम उन्हीं के दर्शन करना है। प्रस्तुत प्रागम में केवल चक्ररत्न का ही उल्लेख हया है, अन्य दो घटनामों का उल्लेख नहीं है। अतः भरत ने चक्ररत्न का अभिवादन किया और प्रष्ट दिवसीय महोत्सव किया। चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिये चक्ररत्न अनिवार्य साधन है। यह चक्ररत्न देवाधिष्ठित होता है। एक हजार देव इस चक्ररत्न की सेवा करते हैं। यों चक्रवर्ती के पास चौदह रत्न होते हैं। यहां पर रत्न का अर्थ अपनी-अपनी जातियों की सर्वोत्कृष्ट वस्तुएं हैं। चौदह रत्नों में सात रत्न एकेन्द्रिय और सात रत्न पंचेन्द्रिय होते हैं। आचार्य अभयदेव ने स्थानांगवत्ति में लिखा है कि चक्र आदि सात रत्न पृथ्वीकाय के जीवों के शरीर से बने हुए होते हैं, अतः उन्हें एकेन्द्रिय कहा जाता है। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनसारोद्धार ग्रन्थ में इन सात रत्नों का प्रमाण इस प्रकार दिया है। 163 चक्र, छत्र और दण्ड ये तीनों व्याम तुल्य हैं। 164 तिरछे फैलाये हए दोनों हाथों की अंगलियों के अन्तराल जितने बड़े होते हैं। चर्मरत्न दो हाथ लम्बा होता है। सिरत्न बत्तीस मणिरत्न चार अंगुल लम्बा और दो अंगुल चौड़ा होता है। कामिणीरत्न की लम्बाई चार अंगूल होती है। जिस युग में जिस चक्रवर्ती की जितनी अवगाहना होती है, उस चक्रवर्ती के अंगुल का यह प्रमाण है। चक्रवर्ती को आयुधशाला में चक्ररत्न, छत्ररत्न, दण्डरल और असिरत्न उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती के श्रीघर में चर्मरत्न, मणिरत्न और कागिणीरत्न उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती की राजधानी विनीता में सेनापति, वर्द्धक और पुरोहित ये चार पुरुषरत्न होते हैं। वैतादयगिरि की उपत्यका में अश्व और हस्ती रत्न उत्पन्न होते हैं। उत्तर दिशा की विद्याधर श्रेणी में स्त्रीरत्न उत्पन्न होता है / 165 प्राचार्य नेमिचन्द्र ने चौदह रत्नों की व्याख्या इस प्रकार की है - 1. सेनापति—यह सेना का नायक होता है। गंगा और सिन्धु नदी के पार वाले देशों को यह अपनी भुजा के बल से जीतता है। 159. (क) त्रिषष्टिशलाकापुरुष च. 1131514 (ख) महापुराण 24121573 160. महापुराण 24 / 6 / 573 161. महापुराण 2419 / 573 162. रत्नानि स्वजातीयमध्ये समुत्कर्षवन्ति वस्तूनीति-समवायाङ्ग वृत्ति, पृ. 27 163. प्रवचनसारोद्धार गाथा 1216-1217 164. चक्रं छत्र....पुंसस्तिर्यगहस्तद्वयांगूलयोरंतरालम् / —प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र 351 165. भरहस्स णं रनो""उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढीए सम्प्पन्ने / 166. प्रवचनसारोद्धारवत्ति, पत्र 350-351 -आवश्यकचूणि पृ. 208 [ 37 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org