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एक बार राजा मिलिन्द ने आचार्य नागसेन से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि जीव द्वारा किये गये कर्मों की स्थिति कहाँ है? समाधान करते हुए आचार्य ने कहा—वह दिखाया नहीं जा सकता कि कर्म कहाँ रहते हैं।३४
विसुद्धिमग्ग में कर्म को अरूपी कहा है।३५ अभिधर्मकोष में उस को अविज्ञप्ति रूप कहा है।३६ यह रूप सप्रतिद्य न होकर अप्रतिद्य है।३७ सौत्रान्तिक मत की दृष्टि से कर्म का समावेश अरूप में है, वे, अविज्ञप्ति३८ को नहीं मानते। बौद्धों ने कर्म को सूक्ष्म माना है। मन, वचन, और काया की जो प्रवृत्ति है वह कर्म कहलाती है पर वह विज्ञप्ति रूप है, प्रत्यक्ष है। यहाँ पर कर्म का तात्पर्य मात्र प्रत्यक्ष प्रवृत्ति नहीं किन्तु प्रत्यक्ष कर्मजन्य संस्कार है। बौद्ध परिभाषा में इसे वासना और अविज्ञप्ति कहा है। मानसिक क्रियाजन्य संस्कार-कर्म को वासना कहा है और वचन एवं काय जन्य संस्कार-कर्म को अविज्ञप्ति कहा है।३९
विज्ञानवादी बौद्ध कर्म को 'वासना' शब्द से पुकारते हैं। प्रज्ञाकर का अभिमत है कि जितने भी कार्य हैं वे सभी वासनाजन्य हैं। ईश्वर हो या कर्म (क्रिया) प्रधान प्रकृति हो या अन्य कुछ इन सभी का मूल वासना है। ईश्वर को न्यायाधीश मानकर यदि विश्व की विचित्रता की उपपत्ति की जाए तो भी वासना को माने बिना कार्य नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो ईश्वर प्रधान कर्म इन सभी सरिताओं का प्रवाह वासना समुद्र में मिलकर एक हो जाता है।४० शून्यवादी मत के मन्तव्य के अनुसार अनादि अविद्या का अपर नाम ही वासना है। विलक्षण-वर्णन
जैन-साहित्य में कर्मवाद के सम्बन्ध में पर्याप्त विश्लेषण किया गया है। जैनदर्शन में प्रतिपादित कर्म-व्यवस्था का जो वैज्ञानिक रूप है, उसका किसी भी भारतीय परम्परा में दर्शन नहीं होता है। जैन परम्परा इस दृष्टि से सर्वथा विलक्षण है। आगम साहित्य से लेकर वर्तमान साहित्य में कर्मवाद का विकास किस प्रकार हुआ है, इस पर पूर्व में ही संक्षेप में लिखा जा चुका है। कर्म का अर्थ
___ कर्म का शाब्दिक अर्थ कार्य, प्रवृत्ति या क्रिया है। जो कुछ भी किया जाता है वह कर्म है। सोना, बैठना, खाना, पीना आदि जीवन व्यवहार में जो कछ भी कार्य किया जाता है वह कर्म कहलाता है। व्याकरणशास्त्र के कर्ता
कर्म की व्याख्या करते हुए कहा-जो कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट हो वह कर्म है।१ मीमांसादर्शन ने क्रियाकाण्ड को या यज्ञ आदि अनुष्ठान को कर्म कहा है। वैशेषिकदर्शन में कर्म की परिभाषा इस प्रकार हैं जो एक द्रव्य
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न सक्का महाराज तानि कम्मानि दस्सेतुं इध व एध वा तानि कम्मानि तिट्ठन्तीति। .
मिलिन्द प्रश्न ३।१५ पृ. ७५ विसुद्धिमग्ग १७। ११० . अभिधर्मकोष १।९ देखिए आत्ममीमांसा, पृ. १०६ नौमी अरियंटल कोन्फरंस, पृ. ४२० (क) अभिधर्मकोष चतुर्थ परिच्छेद, (ख) प्रमाणवार्त्तिकालंकार, ७५ न्यायावतारवार्त्तिक वृत्ति की टिप्पणी, पृ. १७७-८ में उद्धृत कर्तुरीप्सिततमं कर्म। -अष्टाध्यायी १। ४। ७९
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