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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध बवरोवेत्तए,सयमेव रजसिरिकारेमाणे, पालेमाणे विहरित्तए।तएणं से नंदिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रन्नो बहूणि अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणे विहरइ।
१०–तदनन्तर वह दुर्योधन चारकपाल का जीव छठे नरक से निकलकर इसी मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा की बन्धुश्री देवी की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर लगभग नव मास परिपूर्ण होने पर बन्धुश्री ने बालक को जन्म दिया। तत्पश्चात् बारहवें दिन माता-पिता ने नवजात बालक का नन्दिषेण नाम रक्खा ।
तदनन्तर पाँच धायमाताओं से सार-संभाल किया जाता हुआ नन्दिषेण कुमार वृद्धि को प्राप्त होने लगा। जब वह बाल्यावस्था को पार करके युवावस्था को प्राप्त हुआ तब युवराज पद से अलंकृत भी हो गया। .
तत्पश्चात् राज्य और अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त नंदिषेण कुमार श्रीदाम राजा को मारकर स्वयं ही राज्यलक्ष्मी को भोगने एवं प्रजा का पालन करे की इच्छा करने लगा। एतदर्थ कुमार नन्दिषेण श्रीदाम राजा के अनेक अन्तर_अवसर. छिद्र जिस समय पारिवारिक व्यक्ति नहीं हों. अथवा विरह कोई भी पास न हो, राजा अकेला ही हो—ऐसे अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। पितृवध का दुःसंकल्प
११—तए णं से नन्दिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रन्नो अंतरं अलभमाणे अन्नया कयाइ चित्तं अलंकारियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी—'तुम्हे णं देवाणुप्पिया! सिरिदामस्स रन्नो सव्वट्ठाणेसु य सव्वभूमीसु य अंतेउरे य दिन्नवियारे सिरिदामस्स रन्नो अभिक्खणं अभिक्खणं अलंकारियं कम्मं करेमाणे विहरसि। तं णं तुमं देवाणुप्पिया! सिरदामस्स रन्नो अलंकारियं कम्मं करेमाणे गीवाए खुरं निवेसेहि।
तो णं अहं तुम्हं अद्धरज्जयं करिस्सामि। तुम अम्हेहिं सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिस्ससि।
तए णं से चित्ते अलंकारिए नंदिसेणस्स कुमारस्स एयमढे पडिसुणेइ।
११—तदनन्तर श्रीदाम नरेश के वध का अवसर प्राप्त न होने से कुमार नन्दिषेण ने किसी अन्य समय चित्र नामक अलंकारिक–नाई को बुलाकर इस प्रकार कहा–देवानुप्रिय! तुम श्रीदाम नरेश के सर्वस्थानों.सर्वभमिकाओं तथा अन्तःपर में स्वेच्छापूर्वक आ-जा सकते हो और श्रीदाम नरेश का बारम्बार क्षौरकर्म करते हो। अतः हे देवानप्रिय! यदि तम श्रीदाम नरेश के क्षौरकर्म करने के अवसर पर उसकी गरदन में उस्तरा घुसेड़ दो—इस प्रकार तुम्हारे हाथों नरेश का वध हो जाये तो मैं तुमको आधा राज्य दे दूंगा। तब तुम भी हमारे साथ उदार-प्रधान कामभोगों का उपभोग करते हुए सानन्द समय व्यतीत कर सकोगे। चित्र नामक नाई ने कुमार नन्दिषेण के उक्त कथन को स्वीकार कर लिया। षड्यंत्र विफल : घोर कदर्थना
१२—तए णं तस्स चित्तस्स अलंकारियस्स इमेयारूवे जाव (अज्झत्थिए चिंतिए कप्पिए