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[विपाकसूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
समृद्धि उपलब्ध तथा प्राप्त हुई और उसके समक्ष समुपस्थित हुई है।
१४ – 'पभूणं भन्ते ! सुबाहुकुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ?'
'हंता पभू' ।
तणं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं से समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ हत्थिसीसाओ नयराओ पुप्फकरंडाओ उज्जाणाओ कयवर्णमालज-क्खाययणओ पडिनिक्खइम, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ।
तणं से सुबाहुकुमारे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव' पडिलाभेमाणे विहरइ । १४ –—–— गौतम–—–—प्रभो ! सुबाहुकुमार आपश्री के चरणों में मुण्डित होकर, गृहस्थावास को त्याग कर अनगार धर्म को ग्रहण करने में समर्थ हैं ?
भगवान् —हाँ गौतम ! है अर्थात् प्रव्रजित होने में समर्थ है।
तदनन्तर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना व नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे ।
तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने किसी अन्य समय हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानगत कृतवनमाल नामक यक्षायतन से विहार किया और विहार करके अन्य देशों में विचरने लगे । इधरु सुबाहुकुमार श्रमणोपासक - देशविरत श्रावक हो गया । जीव अजीव आदि तत्त्वों का मर्मज्ञ • आहारादि के दान - जन्य लाभ को प्राप्त करता हुआ समय व्यतीत करने लगा ।
यावत्
विवेचन — भगवान् महावीर की धर्मदेशना से प्रभावित व प्रतिबोधित हुए सुबाहुकुमार ने भगवान् से कहा था— प्रभो ! आपके पास अनेक राजा-महाराजा, सेठ साहूकार, साधु धर्म को स्वीकार करते हैं परन्तु मैं उस सर्वविरति रूप साधुधर्म को स्वीकार करने में समर्थ नहीं हूँ । अतः आप मुझे देशविरति धर्म-अणुव्रत पालन का ही नियम करावें ।
सुबाहुकुमार के उक्त कथन को स्मृति में रखते हुए गौतम स्वामी ने 'पभू णं, भंते! सुबाहुकुमारे देवाप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ?' इस प्रश्न में 'पभू' शब्द का इसी अभिप्राय से प्रयोग किया लगता है।
१५ –तए णं से सुबाहुकुमारे अन्नया कयाइ चाउद्दसमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ पडिलेहिता दब्भसंथारगं संथरइ संथरित्ता दब्भसंथारं दुरुहइ, दुरुहित्ता अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पगिण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए अट्ठमभत्तिए पोसहं पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे विहरइ ।
१. देखिये समिति द्वारा प्रकाशित उपासकदशांग पृ. ६२