________________
१२८]
[विपाकसूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध होगा। वहाँ से च्यव कर फिर मनुष्य-भव में जन्म लेगा और पूर्व की ही तरह दीक्षित होकर यावत् आनत नामक नवम देवलोक में उत्पन्न होगा । वहाँ की भवस्थिति को पूर्ण कर मनुष्य-भव में आकर दीक्षित हो आरण नाम के ग्यारहवें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ से च्यव कर मनुष्य-भव को धारण करके अनगारधर्म का आराधन कर शरीरान्त होने पर सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में उत्पन्न होगा। वहाँ से च्यवकर सुबाहुकुमार का वह जीव व्यवधानरहित महाविदेह क्षेत्र में सम्पन्न कुलों में से किसी कुल में उत्पन्न होगा । वहाँ दृढप्रतिज्ञ' की भाँति चारित्र प्राप्त कर सिद्धपद को प्राप्त करेगा ।
विवेचन—' आउक्खएणं' आदि तीन शब्दों की व्याख्या वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है—' आउक्खणं त्ति आयुष्यकर्मनिर्जरेण, भवखएण त्ति देवगतिनिबन्धनदेवगत्यादिकर्मद्रव्यनिर्जरण, ठिइक्खएणं आयुष्यकर्मादिकर्मस्थितिविगमेन ।' आयु शब्द से आयुष्कर्म के दलिकों या कर्मवर्गणाओं का क्षय इष्ट है । भव शब्द से देवगति में कारणभूत देवगति नामकर्म के कर्मदलिकों का नाश गृहीत है - और स्थिति शब्द से आयुष्कर्म के दलिक जितने समय तक आत्मप्रदेशों से सम्बन्धित रहते हैं, उस कालस्थिति का नाश स्थितिनाश कहा जाता है ।
२१ – एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते । त्ति बेमि ।
२१---आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं — हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक अंग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है।
ऐसा मैं कहता हूँ ।
१.
॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ॥
'दृढप्रतिज्ञ' के वर्णन के लिए देखिए औप. सूत्र - १४१ - १५४