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सुखविपाक : प्रथम अध्ययन]
[१२५ १५–तत्पश्चात् किसी समय वह सुबाहुकुमार चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट-अमावस्या और पूर्णमासी, इन तिथियों में जहाँ पौषधशाला थी—पौषधव्रत करने का स्थान-विशेष था वहाँ आता है। आकर पौषधशाला का प्रमार्जन करता है, प्रमार्जन कर उच्चारप्रस्रवणभूमि मल-मूत्र विसर्जन के स्थान की प्रतिलेखना-निरीक्षण करता है। दर्भसंस्तार-कुशा के आसन को बिछाता है। बिछाकर दर्भ के आसन पर आरूढ होता है और अट्ठमभक्त–तीन दिन का लगातार उपवास ग्रहण करता है। पौषधशाला में पौषधिक—पौषधव्रत धारण किये हुए वह, अष्टमभक्त सहित पौषध अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों में करने योग्य जैन श्रावक का व्रत-विशेष अथवा आहारादि के त्यागपूर्वक किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान-विशेष—का यथाविधि पालन करता हुआ अर्थात् तेला-पौषध करके विहरण करता है।
१६-तए णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अन्झथिए चिंतिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था धना णं ते गामागर-नगर-निगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-दोहमुह-मडंब-पट्टणासम-संबाह-सन्निवेसा जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरइ।
धन्ना णं ते राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहप्पभिइओ जे णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडा जाव पव्वयंति।
धन्ना णं ते राईसरतलवर० जे णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुबालसविहं गिहिधम्म पडिवजन्ति।
धन्ना णं ते राईसरतलवर० जावजेणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्मं सुणेन्ति।
तं जड़ णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुद्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागन्च्छिज्जा जाव विहरिज्जा, तए णं अहं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता जाव ( अगाराओ अणगारियं) पव्वएज्जा।
१६–तदनन्तर मध्य रात्रि में धर्मजागरण के कारण जागते हुए सुबाहुकुमार के मन में यह आन्तरिक विचार, चिन्तन, कल्पना, इच्छा एवं मनोगत संकल्प उठा कि वे ग्राम, आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेट (खेडे), कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पट्टन, आश्रम, संबाध और सनिवेश धन्य हैं जहाँ पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते हैं।
वे राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य; श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट मुण्डित होकर प्रव्रजित होते हैं।
वे राजा, ईश्वर आदिक धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पञ्चाणुव्रतिक और सप्त शिक्षाव्रतिक (पांच अणुव्रतों एवं सात शिक्षाव्रतों का जिसमें विधान है) उस बारह प्रकार के गृहस्थ
धर्म की पुष्टि करने वाले नियमविशेष का धारण करना पौषधव्रत कहलाता है। इसमें आहारादि के त्याग के साथ ही शरीर के श्रृंगार का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन, व्यापार-व्यवहार का भी वर्जन अपेक्षित है। चारों प्रकार के आहार के त्यागपूर्वक किया जाने वाला पौषधव्रत पौषधोपवास कहलाता है : 'पोषणं पोषं: पुष्टि रित्यर्थः तं धत्ते गृहणाति इति पौषधः।'