________________
८०]
[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध हत्थगयं गेहे-गेहे देहं बलियाए वित्तिं कप्पेमाणं पासइ। तए भगवं गोयमे उच्च-नीय-मज्झिमकुलाइं जाव अडमाणे अहापज्जत्तं समुदाणं गिण्हइ, गिण्हित्ता पालिसंडाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भत्तपाणं आलोएइ, भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता समणेणं अब्भणुन्नाए समाणे जाव विलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं आहारमाहारेइ, संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
४—उस काल तथा उस समय भगवान् गौतम स्वामी षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिये पाटलिखण्ड नगर में जाते हैं। उस पाटलिखण्ड नगर में पर्वदिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। वहाँ एक पुरुष को देखते हैं, जिसका वर्णन निम्न प्रकार है
वह पुरुष कण्डू-खुजली के रोग से युक्त, कोढ के रोगवाला, जलोदर, भगन्दर तथा बवासीरअर्श के रोग से ग्रस्त था। उसे खांसी, श्वास व सूजन का रोग भी हो रहा था। उनका मुख सूजा हुआ था। हाथ और पैर भी सूजे हुए थे। हाथ और पैर की अंगुलियां सड़ी हुई थीं, नाक और कान गले हुए थे। व्रणों (घावों) से निकलते सफेद गन्दे पानी तथा पीव से वह 'थिव थिव' शब्द कर रहा था। (अथवा बिलबिलाते हुए) कृमियों से अत्यन्त ही पीडित तथा—गिरते हुए पीव और रुधिरवाले व्रणमुखों से युक्त था। उसके कान और नाक क्लेदतन्तुओं—फोड़े के बहाव के तारों से गल चुके थे। बारंबार वह पीव के कवलों ग्रासों का, रुधिर के कवलों का तथा कृमियों के कवलों का वमन कर रहा था। वह कष्टोत्पादक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द कर रहा था। उसके पीछे-पीछे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड चले जा रहे थे। उसके सिर के बाल अस्तव्यस्त थे। उसने थिगली वाले वस्त्रखंड धारण कर रक्खे थे। फूटे हुए घड़े का टुकड़ा उसका भिक्षापात्र था। सिकोरे का खंड उसका जल-पात्र था, जिसे वह हाथ में लिए हुये घरघर में भिक्षावृत्ति के द्वारा आजीविका कर रहा था।
इधर भगवान् गौतम स्वामी ऊँच, नीच और मध्यम घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए और यथेष्ठ भिक्षा लेकर पाटलिखण्ड नगर से निकलकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ पर आये। आकर भक्तपान की आलोचना की और लाया हुआ आहार-पानी भगवान् को दिखाया। दिखलाकर उनकी आज्ञा मिल जाने पर बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भांति—बिना रस लिए ही—आहार करते हैं और संयम तथा तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे।
५–तए णं से भगवं गोयमे दोच्चं पि छट्टक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं जाव पाडलिसंडं नयरं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसइ, तं चेव पुरिसं पासइ-कच्छुल्लं तहेव जाव संजमेणं तवसा विहरइ।
५–उसके बाद भगवान् गौतम स्वामी ने दूसरी बार बेले के पारणे के निमित्त प्रथम प्रहर में स्वाधयय किया यावत् भिक्षार्थ गमन करते हुए पाटलिखण्ड नगर में दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो यहां पर भी उन्होंने कंडू आदि रोगों से युक्त उसी पुरुष को देखा और वे भिक्षा लेकर वापिस आये। यावत् तप व संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे।
६-तए णं से गोयमे तच्चं पि छट्ठक्खमणपारणगंसि तहेव जाव पच्चथिमिल्लेणं दुवारेणं