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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पहनाया, पहिनाकर महार्ह (बड़ों के योग्य) पुष्पारोहण, वस्त्रारोहण, गन्धारोहण, माल्याराहण और चूर्णारोहण किया। तदनन्तर धूप जलाई। धूप जलाकर यक्ष के सन्मुख घुटने टेककर पांव में पड़कर इस प्रकार निवेदन किया—'जो मैं एक जीवित बालक या बालिका को जन्म दूँ तो याग, दान एवं भण्डार की वृद्धि करूंगी।' इस प्रकार—यावत् याचना करती है अर्थात् मान्यता मनाती है। मान्यता मनाकर जिधर से आयी थी उधर लौट जाती है।
१३–तए णं से धन्नंतरी बेज्जे ताओ नरयाओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे पाडलिसंडे नयरे गंगदत्ताए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने।'
तए णं तीसे गंगदत्ताए भारियाए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउब्भूए–'धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव' फले, जाओ णं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता बहूहिं मित्त० जाव परिवुडाओ तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च महुं च मेरंग च जाइंच सीधुं च पसण्णं च पुष्फ जाव(वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय पाडलिसंडं नयरं मझंमज्झेणं पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पुक्खरिणिं ओगाहेंति, ओगाहेत्ता पहायाओ कयबलिकम्माओ कयकोउयमंगलपायच्छित्ताओ, तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं बहूहि मित्तनाइनियग० जाव सद्धिं आसाएंति, विसायंति परिभाएंति परिभुंजंति दोहलं विणेति)' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी—'धन्नाओ णं ताओ जाव विणेति, तं इच्छामि णं जाव विणित्तए।' तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे गंगदत्ताए भारियाए एयमटुं अणुजाणाइ।
१३—तदनन्तर वह धन्वतरि वैद्य का जीव नरक से निकलकर इसी पाटलिखण्ड नगर में गंगदत्ता भार्या की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ—गर्भ में आया। लगभग तीन मास पूर्ण हो जाने पर गंगदत्ता भार्या को यह दोहद मनोरथ उत्पन्न हुआ
'धन्य हैं वे माताएँ यावत् उन्होंने अपना जन्म और जीवन सफल किया है जो विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम और सुरा आदि मदिराओं को तैयार करवाती हैं और अनेक मित्र, ज्ञाति आदि की महिलाओं से परिवृत होकर पाटलिषण्ड नगर के मध्य में से निकलकर पुष्करिणी पर. जाती हैं। वहाँ पुष्करिणी में प्रवेश कर जल स्नान व अशुभ-स्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिये मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञातिजन आदि की महिलाओं के साथ आस्वादनादि करती हुई दोहद को पूर्ण करती हैं।'
इस तरह विचार करके प्रात:काल जाज्वल्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर जहाँ सागरदत्त सार्थवाह था, वहाँ पर आती है और आकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहती है—'स्वामिन्! वे माताएँ धन्य हैं जो यावत् उक्त प्रकार से अपना दोहद पूर्ण करती हैं। मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ।'
१-२.- सप्तम अ., सूत्र ११