Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 172
________________ सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ] उत्तर में भगवान् [११९ कहा— जैसे तुमको सुख हो वैसा करो, किन्तु इसमें देर मत करो। ऐसा कहने पर सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समक्ष पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों वाले बारह प्रकार के गृहस्थधर्म को स्वीकार किया। अर्थात् उक्त द्वादशविध व्रतों के यथाविधि पालन करने का नियम ग्रहण किया । तदनन्तर उसी रथ पर सुबाहुकुमार सवार हुआ और सवार होकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस चला गया। गौतम की सुबाहुविषयक जिज्ञासा ७ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इन्दभूई जाव एवं वयासी—'अहो णं भंते! सुबाहुकुमार इट्ठे, इट्ठरूवे, कंते, कंतरूवे, पिये, पियरूवे, मणुन्ने, मनुन्नरूवे, मणामे, मणामरूवे, सामे, सोमरूवे, सुभगे, सुभगरूवे, पियदंसणे सुरूवे । बहुजणस्स वि य णं भंते ! सुबाहुकुमार इट्ठे जाव सुरूवे। साहुजणस्स वि य णं ! सुबाहुकुमारे इट्ठे इट्ठरूवे जाव सुरूवे । सुबाहुणा भंते ! कुमारेणं इमा एयारूवा उराला माणुस्सरिद्धि किन्ना लद्धा ? किन्न पत्ता ? किन्ना अभिसमन्नागया ? के वा एस आसी पुव्वभवे ?' जाव (किंनामए वा किं वा गोत्तेणं? कयरंसि गामंसि वा संनिवेसंसि वा ? किं वा दच्चा किं वा भोच्चा किं वा समायरित्ता कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आयरियं वयणं सोच्चा निसम्म सुबाहुणा कुमारेण इमा एयारूवा माणुसिड्ढी लद्धा पत्ता) अभिसमन्नागया? ७—उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत् इस प्रकार कहने लगे 'अहो भगवन् ! सुबाहुकुमार बालक (बहुजन इष्ट) बड़ा ही इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप सुन्दररूप वाला है। अहो भगवन् ! यह सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट, इष्ट रूप यावत् सुरूप लगता है । ' भदन्त ! सुबाहुकुमार ने यह अपूर्व मानवीय समृद्धि कैसे उपलब्ध की? कैसे प्राप्त की? और कैसे उसके सन्मुख उपस्थित हुई ? सुबाहुकुमार पूर्वभव में कौन था ? यावत् इसका नाम और गोत्र क्या था ? किस ग्राम अथवा बस्ती में उत्पन्न हुआ था? क्या दान देकर, क्या उपभोग कर और कैसे आचार का पालन करके और किस श्रमण या माहन के एक भी आर्यवचन को श्रवण कर सुबाहुकुमार ने ऐसी यह ऋद्धि लब्ध एवं प्राप्त की है, कैसे यह समृद्धि इसके सन्मुख उपस्थित हुई है ? 1 विवेचन—– सुबाहुकुमार की व्यावहारिक जीवन जीने की कला इतनी अद्भुत और आकर्षक थी कि वह आम जनसमुदाय का प्रीति - भाजन बन गया। उससे सभी प्रसन्न थे । प्राणों के अन्तराल से उसे चाहते थे। जन-मन के हृदय में देवता की तरह उसने स्थान बना लिया था । इतना ही नहीं, वह साधुजनों का भी स्नेहपात्र बन गया था । आध्यात्मिक साधना की दिशा में प्रतिपल जागृत व प्रगतिशील रहने के कारण निःस्वार्थ, स्वभावत: अनासक्त एवं निष्काम वृत्ति वाले साधुपुरुषों के हृदय में भी सुबाहु का प्रेमपूर्ण स्थान बन गया। यहाँ सुबाहुकुमार के लिये जो अनेक विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं, वे सामान्य दृष्टि से समानार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु उन सब के अर्थ में थोड़ा अन्तर है, जो इस प्रकार है—

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