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अष्टम अध्ययन.]
[९१ वागुरिक—जालों से जीवों को पकड़ने वाले व्याध, शाकुनिक–पक्षिघातक नौकर पुरुष थे; जो श्लक्ष्णमत्स्यों कोमल चर्मवाली मछलियों यावत् पताकातिपताकों मत्स्यविशेषों, तथा अजों (बकरों) यावत् महिषों एवं तित्तिरों यवात् मयूरों का वध करके श्रीद रसोइये को देते थे। अन्य बहुत से तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षी उसके यहाँ पिंजरों में बन्द किये हुए रहते थे। श्रीद रसोइया के अन्य अनेक रुपया, पैसा, भोजनादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले पुरुष अनेक जीते हुए तित्तरों यावत् मयूरों को पक्ष रहित करके (पंख उखाड़ करके) उसे लाकर दिया करते थे।
८तए णं से सिरीए महाणसिए बहूणं जलयर-थलयर-खहयराणं मंसाइंकप्पणिकप्पियाई करेइ, तं जहा सण्हखंडियाणि य वट्ट खंडियाणि य दीहखंडियाणि य हस्सखंडियाणि य हिमपक्काणिय जम्मपक्काणि य वेगपक्काणिय धम्मपक्काणि य मारुयपक्काणि य कालाणि य हेरंगाणि य महिट्ठाणि य आमलरसियाणि यमुद्दियारसियाणि य कविठ्ठरसियाणि यदालिमरसियाणि य मच्छरसियाणि य तलियाणि य भज्जियाणि य सोल्लियाणि य उवक्खडावेति, उवक्खडावेत्ता अन्ने य बहवे मच्छरसए य एणेज्जरसए य तित्तिररसए य जाव मयररसए य. अन्नं च विउलं हरियसागं उवक्खडावेति, उवक्खडावेत्ता मित्तस्स रन्नो भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवणेति। अप्पणा वि य णं से सिरीए महाणसिए तेसिं च बहूहिं जाव जलयर-थलयर-खहयरमंसेहिं रसएहि य हरियसागेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च जाइं च सीधुं च आसाएमाणे वीसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे विहरइ। तए णं से सिरीए महाणसिए एयकम्मे एयप्पहाणे एयविन्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्मं समजिणित्ता तेत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता काल मासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उववन्ने।
८-तदनन्तर वह श्रीद नामक रसोइया अनेक जलचर स्थलचर व खेचर जीवों के मांसों को लेकर सूक्ष्म खण्ड, वृत्त (गोल) खण्ड, दीर्घ (लम्बे) खण्ड तथा ह्रस्व (छोटे, छोटे) खण्ड किया करता था। उन खण्डों में से कई एक को बर्फ से पकाता था, कई एक को अलग रख देता जिससे वे ख़ण्ड स्वतः ही पक जाते थे, कई एक को धूप की गर्मी से व कई एक को हवा के द्वारा पकाता था। कई एक को कृष्ण वर्ण वाले तो कई एक को हिंगुल के जैसे लाल वर्ण वाले किया करता था। वह उन खण्डों को तक्र—छाछ से संस्कारित, आमलक—आंवले से रस से भावित, द्राक्षारस, कपित्थ तथा अनार के रस से भी संस्कारित करता था एवं मत्स्यरसों से भी भावित किया करता था। तदनन्तर उन मांसखण्डों में से कई एक को तेल से तलता, कई एक को आग पर भूनता तथा कई एक को शूला-प्रोत शूल में पिरोकर पकाता था।
इसी प्रकार मत्स्यमांसों के रसों, को, मृगमांसों के रसों को, तित्तिरमांसों के रसों को यावत् मयूरमांसों के रसों को तथा अन्य बहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, तैयार करके राजा मित्र के
प में ले जाकर भोजन के समय उन्हें प्रस्तुत करता था। श्रीद रसोइया स्वयं भी अनेक जलचर, स्थलचर एवं खेचर जीवों के मांसों, रसों व हरे शाकों के साथ, जो कि शूलपक्व होते, तले हुए होते, भूने हुए होते थे, छह प्रकार की सुरा आदि का आस्वादनादि करता हुआ काल यापन कर रहा था।
तदनन्तर इन्हीं कर्मों को करनेवाला, इन्हीं कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन्हीं का विज्ञान