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दशम अध्ययन ]
पूर्वभव
४ एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहेवासे इंदपुरे नामं नयरे होत्था । तत्थ णं इन्ददत्ते राया । पुढविसिरी नामं गणिया होत्था । वण्णओ । तए णं सा पुढिसिरी गणिया इंदपुरे नयरे बहवे राईसर जाव प्यभिइओ बहूहिं चुण्णप्पओगेहि य जाव (हियउड्डावणेहि य निण्हवणेहि य पण्हवणेहि य बसीकरणेहि य आभिओगेहि य) अभिओगेत्ता उरालाई माणुस्सगाइं भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ ।
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४— हे गौतम! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक नगर था । वहाँ इन्द्रदत्त नाम का राजा राज्य करता था । इसी नगर में पृथ्वीश्री नाम की एक गणिका – वेश्या रहती थी। उसका वर्णन पूर्ववत् कामध्वजा वेश्या की ही तरह जान लेना चाहिये । इन्द्रपुर नगर में वह पृथ्वी श्री गणिका अनेक ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि लोगों को (वशीकरण सम्बन्धी) चूर्णादि के प्रयोगों से वशवर्ती करके मनुष्य सम्बन्धी उदार मनोज्ञ कामभोगों का यथेष्ट रूप में उपभोग करती हुई समय व्यतीत कर रही थी ।
५ तए णं सा पुढिवीसिरी गणिया एयकम्मा एयप्पहाणा एयविज्जा एयसमायारा सुबहुं पावं कस्मं समज्जिणित्ता पणत्तीसं वाससयाइं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्टीए पुढवीए उक्कोसेणं वावीस सागरोवमट्ठिइएस नेरइएस नेरइयत्ताए उववन्ना ।
५ —तदनन्तर एतत्कर्मा एतत्प्रधान एतद्विद्य एवं एतल्- आचारवाली वह पृथ्वी श्री गणिका अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर ३५ सौ वर्ष के परम आयुष्य को भोगकर कालमास में काल करके छट्ठी नरकभूमि में २२ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थितिवाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुई।
वर्त्तमान भव
६ – साणं तओ अनंतरं उव्वट्टित्ता इहेह वद्धमाणपुरे नयरे धणदेवस्स सत्थवाहस्स पिंयगु भारियाए कुच्छिसि दारियत्ताए उववन्ना। तए णं सा पियंगु भारिया नवण्हं मासाणं दारिया पयाया । नामं अंजुसिरी । सेसं जहा देवदत्ताए ।
६ – वहां से निकल कर इसी वर्धमानपुर नगर में वह धनदेव नामक सार्थवाह की प्रियंगु भार्या की कोख से कन्या रूप में उत्पन्न हुई अर्थात् कन्या रूप से गर्भ में आई । तदनन्तर उस प्रियंगु भार्या ने नव मास पूर्ण होने पर उस कन्या को जन्म दिया और उसका नाम अज्जुश्री रक्खा । उसका शेष वर्णन (नौवें अध्ययन में वर्णित ) देवदत्ता की ही तरह जान लेना चाहिये ।
७ – तणं से विजये राया आसवाहणियाए जहा वेसमणदत्ते तहा अंजु पासइ । नवरं अप्पणो अट्ठाए वरेइ, जहा तेयली जाव अंजूए भारियाए सद्धिं उप्पि जाव विहरइ ।
७ – तदनन्तर महाराज विजयमित्र अश्वक्रीडा के निमित्त जाते हुए राजा वैश्रमणदत्त की भांति ही
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द्वि. अ. सूत्र ३ ज्ञाताधर्मकथाङ्ग अ.-२