Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 142
________________ अष्टम अध्ययन शौरिकदत्त प्रस्तावना १–'जइ णं भन्ते' अट्ठमस्स उक्खेवो. १-अहो भगवन् ! अष्टम अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? इस प्रकार उत्क्षेप पूर्ववत् जान लेना चाहिये। २–एवं खलु, जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं सोरियपुरं नयरं होत्था, सोरियवडिंसगं उज्जाणं। सोरियो जक्खो। सोरियदत्ते राया २-हे जम्बू! उस काल तथा उस समय में शौरिकपुर नाम का एक नगर था। वहाँ शौरिकावतंसक' नाम का एक उद्यान था। उसमें शौरिक नाम के यक्ष का यक्षायतन था। शौरिकदत्त नामक राजा वहाँ राज्य करता था। शौरिकदत्त का वर्तमान भव ३ तस्स णं सोरियपुरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए तत्थ णं एगे मच्छंधपाडए होत्था। तत्थ णं समुद्ददत्ते नामं मच्छंधे परिवसइ। अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे। तस्स णं समुद्ददत्तस्स समुद्ददत्ता नामं भारिया होत्था, अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा। तस्सणं समुद्ददत्तस्स पुत्ते समुद्ददत्ताए भारियाए अत्तए सोरियदत्ते नामं दारए होत्था, अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरे। ___ ३–उस शौरिकपुर नगर के बाहर ईशान कोण में एक मच्छीमारों का पाटक—पाड़ा मोहल्ला था। वहाँ समुद्रदत्त नामक मच्छीमार रहता था। वहा महा-अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था। उसकी समुद्रदत्ता नाम की अन्यून व निर्दोष पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीरवाली भार्या थी। उस समुद्रदत्त का पुत्र और समुद्रदत्ता भार्या का आत्मज शौरिकदत्त नामक सर्वाङ्गसम्पन्न सुन्दर बालक था। ४ तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, जाव परिसा पडिगया। ४-उस काल व उस समय में (शौरिकावतंसक उद्यान में) भगवान् महावीर पधारे। यावत् परिषद् व राजा धर्मकथा सुनकर वापिस चले गये। ५ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे सीसे जाव सोरियपुरे नयरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापज्जत्तं समुदाणं गहाय सोरियपुराओ नयराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तस्स मच्छंधवाडगस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे महइमहालियाए मणुस्सपरिसाए मझगयं एगं पुरिसं सुक्कं भुक्खं निम्मंसं अट्ठिचम्मावणद्धं किडिकिडयाभूयं

Loading...

Page Navigation
1 ... 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214