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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध करने गया। उनका स्वागत कर आसन पर बैठने की प्रार्थना की। तदनन्तर आश्वस्त—गतिजन्य श्रम के न रहने से स्वास्थ्य-शांति को प्राप्त हुए तथा विश्वस्त मानसिक क्षोभ जरा भी न रहने के कारण विशेष रूप से स्वस्थता को उपलब्ध हुए एवं सुखपूर्वक उत्तम आसनों पर अवस्थित हुए। इन आने वाले राजपुरुषों से दत्त ने इस प्रकार कहा—देवानुप्रियो ! आज्ञा दीजिए, आपके शुभागमन का प्रयोजन क्या है ? अर्थात् मैं आपके आगमन का प्रयोजन जानना चाहता हूँ।
दत्त सार्थवाह के इस तरह पूछने पर आगन्तुक राजपुरुषों ने कहा- 'हे देवानुप्रिय! हम आपकी पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देववत्ता नाम की कन्या की युवराज पुष्यनंदी के लिये भार्या रूप से मंगनी करने आये हैं। यदि हमारी यह मांग आपको युक्त–उचित, अवसरप्राप्त, श्लाघनीय तथा वरवधू का यह संयोग अनुरूप जान पड़ता हो तो देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दी के लिए दीजिए और बतलाइए कि इसके लिये आपको क्या शुल्क उपहार दिया जाये?'
___उन आभ्यन्तरस्थानीय पुरुषों के इस कथन को सुनकर दत्त बोले-'देवानुप्रियो ! मेरे लिए यही बड़ा शुल्क है कि महाराज वैश्रमणदत्त (अपने पुत्र के लिये) मेरी इस बालिका को ग्रहण कर मुझे अनुगृहीत कर रहे हैं।'
. तदनन्तर दत्त गाथापति ने उन अन्तरङ्ग राजपुरुषों का पुष्प, गंध, माला तथा अलङ्कारादि से यथोचित सत्कार-सन्मान किया और सत्कार-सन्मान करके उन्हें विसर्जित किया। वे आभ्यन्तरस्थानीय पुरुष जहाँ वैमश्रमण राजा था वहाँ आये और उन्होंने वैश्रमण राजा को उक्त सारा वृत्तान्त निवेदित किया।
___ २१–तए णं से दत्ते गाहावई अन्यया कयाइ सोहणंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्तमुहत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता मित्त-नाइ-नियगसयण-संबंधिपरियणं आमंतेइ। हाए जाव पायच्छित्ते सुहासणवरगए तेण मित्त० सद्धिं संपरिवुडे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणे विहरइ। जिमियभुत्तुत्तराएगए वि य णं आयंते चोक्खे परमसुइभुए तं मित्तनाइनियगसयण-संबंधिपरियणं विउलेणं पुप्फ-वत्थ-गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारित्ता सम्माणेत्ता देवदत्तं दारियं ण्हायं जाव विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरुहेइ, दुरुहेता सुबहुमित्त जाव सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्ढीए जाए नाइयरवेणं रोहीडयं नयरं मझमझेणं जेणेव वेसमणरन्नो गिहे, जेणेव वेसमणे राया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, वद्धवेत्ता वेसमणस्स रन्नो देवदत्तं दारियं उवणेइ।
२१–तदनन्तर किसी अन्य समय दत्त गाथापति शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र व मुहूर्त में विपुल अशनादिक सामग्री तैयार करवाता है और करवाकर मिज्ञ, ज्ञाति, निजक स्वजन सम्बन्धी तथा परिजनों को आमन्त्रित कर यावत् स्नानादि करके दुष्ट स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके सुखप्रद आसन पर स्थित हो उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धी व परिजनों के साथ आस्वादन, विस्वादन करने के अनन्तर उचित स्थान पर बैठ आचान्त (आचमन-कुल्ला किए हुए) चोक्ष (मुखादिगत लेप को दूर किए हुए) अत: परम शुचिभूत—परम