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सप्तम अध्ययन]
[८५ सूर्योदय होने के साथ ही जहाँ पर सागरदत्त सार्थवाह था, वहाँ पर आई और आकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी—'हे स्वामिन् ! मैंने आप के साथ मनुष्य सम्बन्धी सांसारिक सुखों का पर्याप्त उपभोग करते हुए आज तक एक भी जीवित रहने वाले बालक या बालिका को प्राप्त नहीं किया। अतः मैं चाहती हूँ कि यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों, स्वजनों, सम्बन्धीजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषण्ड नगर से बाहर उद्यान में उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना कर पुत्रोपलब्धि के लिये मनौती मनाऊँ।'
इसके उत्तर में सागरदत्त सार्थवाह ने अपनी गंगदत्ता भार्या से कहा—'भद्रे ! मेरी भी यही इच्छा हैक किसी प्रकार से तुम्हारे जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री उत्पन्न हों।' ऐसा कहकर उसने गंगदत्ता के उक्त प्रस्ताव का समर्थन करते हुए स्वीकार किया।
१२–तएशंसा गंगदत्ता भारिया सागरदत्तसत्थवाहेणं एयमटुंअब्भणुन्नाया समाणी सुबहुपुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारंगहाय मित्त जाव महिलाहिं सद्धिं सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पाडलिसंडं नयरं मझंमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुक्खरिणीए तीरे सुबहुंपुष्फवस्थगंधमल्लालंकारंठवेइ, ठवेत्ता पुक्खरिणिं
ओगाहेइ, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करित्ता जलकीडं करेमाणी ण्हाया कयकोउयमंगलपायच्छित्ता उल्लपडसाडिया पुक्खरणीओ पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता तं पुण्फ-वत्थ-गंधमल्लालंकारं गिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव उम्बरदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उम्बरदत्तस्स जक्खस्स आलोए पणामं करेइ, करित्ता लोमहत्थं परामुसइ, परामुसित्ता उम्बरदत्तं जक्खं लोमहत्थेणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खित्ता, पम्हलसुकुमालगंध-कसाइयाए गायलट्ठी ओलूहेइ, ओलूहित्ता सेयाइं वत्थाइं परिहेइ, परिहित्ता महरिहं पुण्फारुहणं, मल्लारुहणं गन्धारुहणं, चुण्णारुहणं करेइ, करित्ता धूवं डहइ, डहित्ता जन्नुपायवडिया एवं वयइ 'जइणं अहं देवाणुप्पिया! दारयंदारियं वा पयामि तोणंजाव( अहं तुब्भं जायं च दायंच भायंच अक्खयनिहिं च अणुवड्ढिस्सामि त्ति कटु ओवाइयं)ओवाइणइ, ओवाइणित्ता जामेव दिसिंपाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।'
१२-तब सागरदत्त सार्थवाह की आज्ञा प्राप्त कर वह गंगदत्ता भार्या विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकार तथा विविध प्रकार की पूजा की सामग्री लेकर मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों की महिलाओं के साथ अपने घर से निकल और पाटलिखण्ड नगर के मध्य से होती हुई एक पुष्करिणी बावड़ी के समीप जा पहुँची। वहाँ पुष्करिणी के किनारे पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, माल्यों तथा अलंकारों को रखकर उसने पुष्करिणी में प्रवेश किया। वहाँ जलमज्जन एवं जलक्रीडा कर कौतुक तथा मंगल प्रायश्चित्त (मांगलिक क्रियाओं) को करके गीली साड़ी पहने हुए वह पुष्करिणी से बाहर आई। बाहर आकर उक्त पुष्पादि पूजासामग्री को लेकर उम्बरदत्त यक्ष के यक्षायतन के पास पहुँची। उसने यक्षप्रतिमा पर नजर पड़ते ही यक्ष को नमस्कार किया। फिर लोमहस्तक-मयूरपिच्छ लेकर उसके द्वारा यक्षप्रतिमा का प्रमार्जन किया। फिर जलधारा से उस यक्षप्रतिमा का अभिषक किया। तदनन्तर कषायरंग वाले—गेरु जैसे रंग से रंगे हुए सुगन्धित एवं सुकोमल वस्त्र से उसके अंगों को पोंछा। पोंछकर श्वेत वस्त्र