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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वृद्धि को प्राप्त होने लगा।
१८–तए णं से विजयमित्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइ गणिमंच धरिमंच मेजं च पारिछेन्जं च चउव्विहं भंडगं गहाय लवणसमुदं पोयवहणेण उवागए।तए णं से तत्थ लवणसमुद्दे पोयविपत्तीए निव्वुड्डभंडसारे अत्ताणे असरणे कालधम्मुणा संजुत्ते।तए णं तं विजयमित्तं सत्थ्वाहं जे जहा बहवे ईसर-तलवर-पांडिबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सत्थवाहा लवणसमुद्दे पोयविवत्तीए छूढं निव्वुड्डअडसारं कालधम्मुणो संजुत्तं सुणेन्ति, ते तहा हत्थनिक्खेवं च बाहिरभाण्डसारं च गहाय एगते अवक्कमंति।
१८—इसके बाद विजयमित्र सार्थवाह ने जहाज द्वारा गणिम (गिनती से बेची जाने वाली वस्तु, जैसे नारियल), धरिम (जो तराजू से तोलकर बेची जाये, जैसे घृत, तेल, शर्करा आदि), मेय (मापकर बेचे जाने योग्य पदार्थ जैसे कपड़ा, फीता आदि) और पारिच्छेद्य (जिन वस्तुओं का क्रय विक्रय परीक्षाधीन हो, जैसे हीरा, पन्ना आदि) रूप चार प्रकार की बेचने योग्य वस्तुएँ लेकर लवणसमुद्र में प्रस्थान किया। परन्तु लवण-समुद्र में जहाज के विनष्ट हो जाने से विजयमित्र की उपर्युक्त चारों प्रकार की महामूल्य वस्तुएँ जलमग्न हो गयीं और वह स्वयं त्राण रहित (जिसकी कोई रक्षा करने वाला न हो) और अशरण (जिसको कोई आश्रय देने वाला न हो) होकर कालधर्म को प्राप्त हो गया। तदनन्तर ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य–धनी, श्रेष्ठी सेठ तथा सार्थवाहों ने जब लवणसमुद्र में जहाज के नष्ट और महामूल्य वाले क्रयाणक के जलमग्न हो जाने पर त्राण और शरण से रहित विजयमित्र की मृत्यु का वृत्तान्त सुना तो वे हस्तनिक्षेप-धरोहर व बाह्य (उसके अतिरिक्त) भाण्डसार को लेकर एकान्त स्थान में (वाणिजग्राम से बाहर ऐसे स्थान पर कि जिसका दूसरों को पता न चल सके) चले गये। .
१९—तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही विजयमित्तं सत्थवाहं लवणसमुद्दे पोयविवत्तीए निव्वुडभाण्डसारं कालधम्मुणा संजुत्तं सुणेइ, सुणित्ता महया पइसोएणं अप्फुन्ना समाणी परसुनियत्ता विवचम्पगलया धस त्ति धरणीयलंसि सव्वंगेण संनिवडिया। तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही मुहुत्तन्तरेण आसत्था समाणी बहूहिं मित्त जाव (-नाइ-नियग-सजण-संबंधिपरिययेणं) सद्धिं परिवुडा रोयमाणी कन्दमाणी विलवाणी विजयमित्त-सत्थवाहस्स लोइयाई मयकिच्चाई करेइ। तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही अनया कयाइ लवणसमुद्दोत्तरणं च लच्छिविणासं च पोयविणासं च पइमरणं च अणुचिन्तेमाणी अणुचिन्तेमाणी कालधम्मुणा संजुत्ता।
१९——तदनन्तर सुभद्रा सार्थवाही ने जिस समय लवणसमुद्र में जहाज के नष्ट हो जाने के कारण प्रस्तुत सूत्र में हस्तनिक्षेप व बाह्यभाण्डसार इन शब्दों का प्रयोग किया गया है, आचार्य अभयदेव सूरि ने इन पदों की निम्न व्याख्या की है—'हस्तेनिक्षेपो-न्यासः समर्पणं यस्य द्रव्यस्य तद् हस्तनिक्षेपम्, हस्तनिक्षेप व्यतिरिक्त च भाण्डसारम्।' धरोहर को हस्तनिक्षेप कहते हैं अर्थात् किसी की साक्षी के बिना अपने हाथ से दिया गया सारभाण्ड हस्तनिक्षेप है और किसी को साक्षी से लोगों की जानकारी में दिया गया सारभाण्ड बाह्य-भाण्डसार के नाम से प्रचलित है।