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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वानर के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ पर बालभाव को त्यागकर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह पशु सम्बन्धी भोगों में मूछित, गृद्ध ग्रथित भोगों के स्नेहपाश में जकड़ा हुआ और भोगों ही में मन को लगाये रखने वाला होगा। वह उत्पन्न हुए वानरशिशुओं का अवहनन (घात) किया करेगा। ऐसे कुकर्म में तल्लीन हुआ वह कालमास में काल करके इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत इन्द्रपुर नामक नगर में गणिका के घर में पुत्र रूप में उत्पन्न होगा। माता-पिता उत्पन्न होते ही उस बालक को वर्द्धितक (नपुंसक) बना देंगे और नपुंसक के कार्य सिखलाएँगे। बारह दिन के व्यतीत हो जाने पर उसके माता-पिता उसका 'प्रियसेन' यह नामकरण करेंगे। बाल्यभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त तथा विज्ञ—विशेष ज्ञान वाला, एवं बुद्धि आदि की परिपक्व अवस्था को उपलब्ध करने वाला वह प्रियंसेन नपुंसक रूप, यौवन व लावण्य के द्वारा उत्कृष्ट-उत्तम और उत्कृष्ट शरीर वाला होगा।
तदनन्तर वह प्रियसेन नपुंसक इन्द्रपुर नगर के राजा, ईश्वर यावत् अन्य मनुष्यों को अनेक प्रकार के प्रयोगों से, मन्त्रों से मन्त्रित चूर्ण, भस्म आदि से, हृदय को शून्य कर देने वाले, अदृश्य कर देने वाले, वश में करने वाले, प्रसन्न कर देने वाले और पराधीन कर देने वाले प्रयोगों से वशीभूत करके मनुष्य सम्बन्धी उदार भोगों को भोगता हुआ समययापन करेगा।
२५–तए णं से पियसेणे नपुंसए एयकम्मे एयप्पहाणे एयविजे एयसामायारे सुबहं पावकम्म समन्जिणित्ता एकवीसं वाससयं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयत्ताए उववन्जिहिइ। तत्तो सरीसवेसु संसारो तहेव जहा पढमे जाव पुढवि०।से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे चम्पाए नयरीए महिसत्ताए पच्चायाहिइ। से णं तत्थ अन्नया कयाइ गोट्ठिल्लएहिं जीवियाओ ववरोविए समाणे तत्थेव चम्पाए नयरीए सेट्ठिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ।से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं वोहिं बुज्झिहिइ, अणगारे भविस्सइ, सोहम्मे कप्पे, जहा पढमे, जाव अंतं करेहिइ, त्ति निक्खेवो।
२५—इस तरह वह प्रियसेन नपुंसक इन पापपूर्ण कामों में ही (अपना कर्त्तव्य, प्रधान, लक्ष्य, विज्ञान एवं सर्वोत्तम आचरण) बनाएगा। इन दुष्प्रवृत्तियों के द्वारा वह बहुत पापकर्मों का उपार्जन करके १२१ वर्ष की परम आयु को भोगकर मृत्यु के समय में मृत्यु को प्राप्त होकर इस रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारक के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर सरीसृप छाती के बल से चलने वाले सर्प आदि प्राणियों की योनियों में जन्म लेगा। वहाँ से उसका संसार-भ्रमण प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की तरह होगा यावत् पृथिवीकाय आदि में जन्म लेगा। वहाँ से निकलकर इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष की चम्पा नामक नगरी में भैंसा (महिष) के रूप में जन्म लेगा। वहाँ गोष्ठियोंमित्रमण्डली के द्वारा मारे जाने पर उसी नगरी के श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप में उत्पन्न होगा। वहां पर बाल्यावस्था को पार करके यौवन अवस्था को प्राप्त होता हुआ वह तथारूप-विशिष्ट संयमी स्थविरों के पास शंका कांक्षा आदि दोषों से रहित बोधिलाभ को प्राप्तकर अनगार धर्म को ग्रहण करेगा। वहाँ से कालमास में काल कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। यावत् मृगापुत्र के समान कर्मों का अन्त करेगा। यहां इस अध्ययन का निक्षेप समझ लेना चाहिए।
१. देखिए प्र. अ., सूत्र-३२