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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध भगवं गोयमे तहेव जाव' रायमग्गमोगाढे। तहेव पासइ हत्थी, आसे, पुरिसमझे पुरिसं। चिंता। तहेव पुच्छइ, पुव्वभवं। भगवं वाइरेइ।
४—उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कौशम्बी नगरी के बाहर चन्द्रावतरण उद्यान में पधारे। उस समय भगवान् गौतम स्वामी पूर्ववत् कौशाम्बी नगरी में भिक्षार्थ गए। और लौटते हुए राजमार्ग में पधारे। वहाँ हाथियों, घोड़ों और बहुसंख्यक पुरुषों को तथा उन पुरुषों के बीच एक बध्य पुरुष को देखा। उनको देखकर मन में विचार करते हैं और स्वस्थान पर आकर भगवान् से उसके पूर्वभव के सम्बन्ध में पृच्छा करते हैं। भगवान् उसके पूर्वभव का इस प्रकार वर्णन करते हैंपूर्वभव
५–एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे सव्वओभद्दे नामं नयरे होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्धे।तत्थ णं संव्वओभद्दे नयरे जियसत्तू राया।तस्सणं जियसत्तुस्स रन्नो महेसरदत्ते नामं पुरोहिए होत्था, रिउव्वेय-यजुव्वेय-सामवेय-अथव्वणवेयकुसले यावि होत्था।
५—हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में सर्वतोभद्र नाम का एक भवनादि के आधिक्य से युक्त, आन्तरिक व बाह्य उपद्रवों से मुक्त तथा धनधान्यादि से परिपूर्ण नगर था। उस सर्वतोभद्र नामक नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस जितशत्रु राजा का महेश्वरदत्त नाम का एक पुरोहित था जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में कुशल था।
६-तए णं से महेसरदत्ते पुरोहिए जितसत्तुस्स रन्नो रज्जबलविवद्धणट्ठयए कल्लाकल्लि एगमेगं माहणदारयं, एगमेगं खत्तियदारयं एगमेगं वइस्सदारयं, एगमेगं सुद्ददारयं गिण्हावेइ, गिण्हावेत्ता तेसिं जीवंतगाणं चेव हिययउंडए गिण्हावेए गिण्हावेत्ता जियसत्तुस्स रन्नो संतिहोमं करेइ।
तए णं से महेसरदत्ते पुरोहिए अट्ठमी-चउद्दसीसुदुवे-दुवे माहण-खत्तिय-वइस्स-सुद्ददारगे, चउण्हं मासाणं चत्तारि-चत्तार, छण्हं मासाणं अट्ठ-अट्ठ संवच्छरस्स सोलस-सोलस।
जाहे जाहे वि य णं जियसत्तू राया परबलेण अभिजुंजइ, ताहे ताहे वि य णं से महेसरदत्ते पुरोहिए अट्ठसयंमाहणदारगाणं,अट्ठसयंखत्तियदारगाणं अट्ठसयं वइस्सदारगाणं अट्ठसयं सुद्ददारगाणं पुरिसेहिं गिण्हावेइ, गिण्हावेत्ता जियसत्तुस्स रन्नो संतिहोमं करेइ। तए णं से परबले खिप्पामेव विद्धंसिज्जइ वा पडिसेहिज्जइ वा।
___६–महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु राजा के राज्य की एवं बल की वृद्धि के लिए प्रतिदिन एकएक ब्राह्मण बालक, एक-एक क्षत्रिय बालक, एक-एक वैश्य बालक और एक-एक शूद्र बालक को पकड़वा लेता था और पकड़वाकर, जीते जी उनके हृदयों के मांसपिण्डों को ग्रहण करवाता-निकलवा लेता था और बाहर निकलवाकर जितशत्रु राजा के निमित्त उनसे शान्ति-होम किया करता था।
इसके अतिरिक्त वह पुरोहित अष्टमी और चतुर्दशी के दिन दो-दो बालकों के, चार-मास में चार
द्वि. अ., सूत्र-६
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